लोकज्ञान और स्थानीय आविष्कारों में छिपा है विश्वगुरु बनने का फार्मूला

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भारत एक विशाल देश हैं जहाँ एक बड़ी जनसँख्या निवास करती है जिसमें विभिन्न नस्लों धर्मों मान्यताओं परम्पराओं के जानकार लोग रहते हैं। थोडा समय यदि पीछे चले जाएँ तो आधुनिक बाजारवाद का ज्यादा जोर नहीं था और लगभग सभी लोग प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर किया करते थे बेशक वो भोजन का मसला हो या दवाई का। सभी के पास अपने अपने भौगोलिक परिवेश के मुताबिक़ अपनी स्थानीय समस्याओं के स्थानीय हल हुआ करते थे। मसलन यदि कोई छोटी मोटी शारीरिक समस्या हो और कोई किसी को बताये कि आज मेरा पेट खराब है या दांत में दर्द है तो सामने वाला कोई ना कोई सूत्र उसे बता ही देता है कि भाई ऐसा कर लो वैसा कर लो। कमाल की बात यह कि वो सूत्र पूरी तरह से प्रभावी होता है कारगर होता है और ऑलमोस्ट घर की रसोई में उपलब्ध सामान से ही काम बन जाता है।

लोक ज्ञान की ताकत

पिछले कुछ दिन पहले मैं दांत में दर्द को लेकर डॉक्टर के पास जाने का मन बना ही रहा था। थोड़े शशोपञ्ज में बस इसीलिए था कि कुछ दर्द बढे तो जाऊँ क्योंकि इस बार डॉक्टर ने दांत जड़ से ही पाड़ देना है ऐसा उसने पिछली बार बताया था। इसी बीच ऐसा हुआ कि मेरा आशीष सिंगला जी जो खारी बावली दिल्ली के जाने माने जड़ी बूटियों के व्यापारी हैं से पंचकूला स्थित उनके आवास पर मिलना हुआ और मैंने उनसे यह सवाल पूछा था कि वो जड़ी बूटी लाइन में कैसे उतरे।

आशीष सिंगला

तब उन्होंने बताया था कि बचपन में उनके दांत में दर्द हुआ तो डॉक्टर ने एक गोली लिख दी जिसकों लें तो ठीक छोड़ दें तो दर्द चालू और फिर उन्हें घर का वैध पुस्तक से पता चला कि एक चुटकी हल्दी में थोड़ा सरसों का तेल मिला कर उसकी टाईट सी गोली बना कर दांत के नीचे रख लेने से दांत दर्द में आराम मिलता है। उन्होंने ऐसा ही किया और बताते हैं कि वो दांत आजतक दर्द नहीं हुआ। जब ये बात वो मुझे बता रहे थे उस वक़्त मेरे भी एक दांत में उन्नीस इक्कीस चल रहा था और घर पहुँचते ही मैंने शुद्ध  हल्दी और सरसों के तेल की एक चुटकी पेस्ट बना ली और बस दांत माँज डाले।

मैंने यह आदत बना ली के रात को सोने से पहले इसी पेस्ट से दाँत मांजने हैं। अब कई दिन बीत गए हैं मेरा वो दांत जिसे पड़वाने की मैं सोच रहा था अब चढ़दी कला में है और मुझे लगता है कि ये लम्बा साथ दे देगा क्योंकि मैं ये सिस्टम बंद ही नहीं करने का।

मैंने अपने इस अनुभव को सोशल मीडिया के माध्यम से अपने मित्र नेटवर्क में शेयर किया तो मेरे कुछ जिज्ञासु और दंत पीड़ा से ग्रसित मित्रों ने इस प्रयोग को दोहराया और कुछ ही दिनों के बाद मुझे फोन करके बताया कि फार्मूला पूरी तरह से प्रभावी है और मार्किट में इस समस्या से ग्रसित लोगों के लिए महँगे उत्पादों का रिजल्ट के हिसाब से बाप नहीं परदादा है।  

समस्या को जड़ कहाँ है?

भारत सदा से ज्ञान और मर्यादा का भूमि रहा है। हमारे यहाँ ज्ञान और विद्या का उद्देश्य सिर्फ लोक कल्याण रहा है ना कि उसका पेटेंट करवा के उससे धन अर्जित करने का एकाधिकार जताना और फिर कैसे भी करके अधिक से अधिक धन का दोहन करना। ज्ञान का पेटेंट करवा के उससे उत्पाद बना कर बेचने की सोच पश्चिमी देशों में पैदा हुई और यह समय के साथ हमारे उपर भी लाद दी गयी और एजुकेशन के नाम पर सिलेबस के माध्यम से पहले तो कई पीढ़ियों को स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों से जुड़े लोक ज्ञान से दूर किया गया और अब तो बाजारवाद और ब्रांड्स को प्रोमोट करने के लिए ये इस स्तर पर आ चुके हैं कि एक दिन मेरी बिटिया पुलकिता के गणित की पुस्तक को मैं देख रहा था जिसमें एक रकम इस तरह की थी बताओ 650 मिलीलीटर अमुक ब्रांड की कोल्ड ड्रिंक को चार मित्रों में बराबर वितरित करना है तो हरेक मित्र के हिस्से में कितनी कोल्ड ड्रिंक आएगी।

पांचवीं कक्षा के छात्र छात्रओँ के मन में गणित की पुस्तक के माध्यम से प्रोडक्ट्स और ब्रांडों के नाम बैठाने की कला पूरी तरह से एक मनोवैज्ञानिक स्ट्रेटेजी है। जिसका शिकार हम अपने बच्चों को खुद पैसे देकर बनवा रहे हैं। इसी तरह  विश्वविधालयों में भारत की नई पीढी तैयार हो रही है जहाँ हज़ारों बच्चे हर साल दाखिला लेते हैं और वहां उन्हें पूरी तरह से बाजारी जीवन शैली में ढाल दिया जाता है।

आगे चल कर वो एक अच्छे उपभोक्ता बन जाते हैं और दिनरात वो वस्तुयें खाने लगते हैं जो खाने के लिए बनी ही नहीं जिन्हे सिर्फ इसीलिए बनाया गया है कि एक तो वो किसी इंडस्ट्रियल वेस्ट को ठिकाने लगाने का काम करते हैं जैसे मूंगफली की खली जो तेल निकालने के बाद बचती है उससे दस तरह के उत्पाद आज हमारे घरों में घूम रहे हैं आजकल निजी स्कूलों और विश्वविधालयों में भारत की नई पीढी तैयार हो रही है जहाँ हज़ारों बच्चे हर साल दाखिला लेते हैं और वहां उन्हें पूरी तरह से बाजारी जीवन शैली में ढाल दिया जाता है।

आगे चल कर वो एक अच्छे उपभोक्ता बन जाते हैं और दिनरात वो वस्तुयें खाने लगते हैं जो खाने के लिए बनी ही नहीं। जिन्हे सिर्फ इसीलिए बनाया गया है कि एक तो वो किसी इंडस्ट्रियल वेस्ट को ठिकाने लगाने का काम करते हैं। जैसे मूंगफली की खली जो तेल निकालने के बाद बचती है उससे दस तरह के उत्पाद बना कर हमारे चारों और पेश किया जाता है और सभी घरों में कैसे ना कैसे पहुँच ही जाते हैं। जिसका नतीजा यह निकलता है कि देश के लगभग सारे बच्चे बीमार हैं या कुपोषित हैं।  

स्थानीय आविष्कारों की ताकत और महत्व

मैं शहर में ही पला बड़ा हुआ हूँ लेकिन मेरी माँ रोहतक के नज़दीक कलानौर में पली और उसे देसी भोजन के महत्व का पता था। वो मेडिकल कालेज रोहतक में नर्सिंग सिस्टर के तौर पर कार्य करती थी और दो बजे अपने कार्यस्थल से लौटती तो वो एक लोहे की बाल्टी के ऊपर एक # जैसा सरिये का स्ट्रक्चर जो उसने मेरे पिताजी को कह कर स्थानीय लोहार से बनवाया हुआ था को रख कर उसके ऊपर बाजरे का मीठा भात पकने के लिए रख देती थी। जो शाम चार साढ़े चार बजे तक खूब अच्छे से पक जाया करता था जिसे खाने के लिए मेरे सरे दोस्त मेरे घर पहुँच जाया करते थे। चार पांच बालकों के लिए एक हांडी काफी हुआ करती थी। लोहे का # आकर का यह शिकंजा मेरे किसी दोस्त के घर नहीं था जिसकी वजह से उनके घर में रखी बाल्टी इस भात को पकाने में अक्षम थी। मेरी माँ द्वारा किये गए इस स्थानीय आविष्कार ने हमें बाजार में उपलब्ध कूड़ा खाने की चाहत ने हमेशा के लिए बचा कर रखा। हमारे पेट भरे हुए होते थे इसीलिए हमें कभी भी दुकानों में लटके पैकटों ने कभी आकर्षित नहीं किया।

चायनीज मान्झें से बचाव

देश में मकर् सक्रांति, तीज , स्वाधीनता दिवस जैसे अनेकों अवसरों पर आदिकाल से पतंगें उड़ाई जाती हैं और  लोग बड़े चाव और आंनद से पतंगबाजी करते हैं। पिछले कुछ सालों से बाजार में एक चायनीज डोर आई हुई है जो इतनी सख्त है कि पक्षियों के पंखों से लेकर इंसानी गलों को मिनटों में चीर देती हैं। हर वर्ष बड़ी संख्या में ऐसी दुर्घटनाएं दर्ज की जाती हैं जिनमें कई जाने भी चली जाती हैं। देश में चल रही इस विपदा का हल किसी अनुसन्धान संस्थान से नहीं आया अपितु पंजाब नाभा स्थित ढीन्गी गाँव के स्थानीय आविष्कारक ने मोटर साइकिल पर चलने वालों के लिए एक पचास साठ रुपये मूल्य का आविष्कार कर दिया है जिससे मोटर साईकिल सवार की जान बच जाती है। एक लोहे की मोटी तार को एक विशेष शेप में मोड़ कर मोटर साईकिल सवार की हाईट से ऊपर रख कर मोटर साईकिल के हैंडल में क्लैम्पों की मदद से कस दिया जाता है। जिससे यदि मोटोर साईकिल सवार चायनीज मांझे की जद में आ जाता है तो हैंडल पर कसी तार मांझे को रोक लेती है और सवार को पता चलने के साथ बचाव करने का अवसर मिल जाता है।

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विश्वगुरु बनने का फार्मूला  

उपरोक्त वर्णित दो उदहारण के जैसे अनेकों बातें घटनाएँ किरदार सम्मानित पाठकों के मन में उभरने लग गए होंगे क्यूंकि हमारा जीवन ऐसे छोटे छोटे अनुभवों से भरा पूरा रहता है। अक्सर हम इन बातों और स्थानीय तकनीकी सुधारों को जुगाड़ कह कर इनका महत्व कम कर देते हैं। जबकि हम संगठित होकर एक राष्ट्रीय स्थानीय तकनीकी डाटाबेस की रचना करनी चाहिए और उसका प्रचार प्रसार करना चाहिए और हमें लोगों के अनुभवों का संकलन बड़े स्तर पर शुरू करना चाहिए।  

भारतीय प्रबंध संस्थान अहमदाबाद से प्रोफेसर अनिल कुमार गुप्ता जी अपने सहयोगियों से साथ मिलकर सन 1989 से स्थानीय आविष्कारों और परंपरागत ज्ञान के श्रेष्ठ उदहारणों का संकलन कर रहे हैं और इस डाटाबेस को ऑनलाइन भी उपलब्ध कराया गया है जिसे www.sristi.org/wsa/ वेबसाइट पर जा कर प्रयोग किया जा सकता है।

anil k gupta

प्रोफेसर अनिल गुप्ता जी द्वारा शुरू किया गया यह कार्य अभी भी शुरुआती दौर में ही है क्यूंकि देश बहुत् बड़ा है और देश के सभी जिलों कस्बों गावों को इसमें जोड़ेने की आवश्यकता है। केवल संकलन से भी कुछ नहीं होना है जब तक देश की जनता इस डाटाबेस का उपयोग अपनी समस्याओं को सुलझाने हेतु प्रयोग करना शुरू नहीं करती है। प्रोफेसर अनिल गुप्ता अब पूरे विश्व के लोगों को जोड़ने के लिए वैश्विक स्तर पर आविष्कारकों की खोज कर रहे हैं जिसके लिए एक ग्लोबल प्रतियोगिता की शुरुआत भी की गयी है जिसमें सौ से अधिक देशों के आविष्कारक भाग ले चुके हैं।

वो दिन अब दूर नहीं है जब पूरे विश्व के आविष्कारक अपने आविष्कारों और ज्ञान को पहचान और सम्मान दिलाने के लिए भारत की ओर देखेंगे।

देश के सभी विश्वविधालयों, स्कूलों , कालेजों में एक सतत खोज अभियान चलाने की आवश्यकता है जिसमें सभी को आविष्कार और आविष्कारक को खोजने हेतु एक प्रोत्साहन की व्यवस्था हो। कोई एक परिपाटी नहीं जैसी आवश्यकता हो वैसा सिस्टम संस्थानों के प्रबंधक बना लें और ऐसे छात्र छात्राओं को विशेष अंक देकर उन्हें प्रोत्साहित करें जो आविष्कारकों को ढूंढ कर सामने लायें। 

इन छोटे छोटे कदमों से हमारी अपने चारों और मौजूद प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता बढ़ेगी जिससे उनके संरक्षण की चिंता भी सभी को होगी और भारत अपने ज्ञान से और अपनी मर्यादा से पूरे विश्व में प्रकाशित होगा और स्वत: अपने गुणों के कारण विश्वगुरु कहलायेगा।