हमारा भाषाई इतिहास और आजकल के मसले

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इसी हफ्ते की शुरुआत में मेरा गुरुग्राम जाना हुआ और मेरे पुराने साथी Jitender Chawla जी के साथ उनके घर पर चाय पकौड़े वाला कार्यक्रम बन गया। देश समाज और इतिहास पर हुई रूटीन चर्चा में मेरे से जितेन्द्र भाई ने सवाल पूछा कि अपने देश में उर्दू भाषा कहाँ से आ गई?

इसे चांस कहें या कुछ और थोड़े दिन पहले ही मुझे इन्टरनेट पर रूटीन खोदा पाड़ी करते हुए एक महान आत्मा John Borthwick Gilchrist (1759–1841) के बारे में मालूम चला था जिन्हें फादर ऑफ़ उर्दू के नाम से भी जाना जाता है।

जैसे आप चौंक गए वैसे मैं भी चौंक गया था।

ये अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी में डॉक्टर के तौर पर बोम्बे आया था और यहाँ आकर जब इसने भारतीय लोगों से इंटरैक्ट किया तो इसे समझ में आया कि यहाँ तो भाषाई विभिन्नता बहुत ज्यादा है और फिर इसने लोगों से बातचीत करके नोट्स बनाने चालू किये।

इसे आ गया सुवाद और इसने एक साल की छुट्टी अप्प्लाई कर दी और बिना छुट्टी सैंक्शन का इंतज़ार किये ये गायब हो गया और बारह सालों तक पंजाब दिल्ली अवध बिहार के इलाके में घूम घूम कर शब्द इक्कठे करता रहा और इसने एक डिक्शनरी तैयार कर ली और उसका नाम रखा डिक्शनरी ऑफ़ हिन्दुस्तानी लैंग्वेज और उसका मूल्य रखा 40 रुपये।

ईस्ट इंडिया कम्पनी को यहाँ के मसले समझने के लिए एक डॉक्यूमेंट की आवश्यकता थी इसीलिए जॉन गिलक्रिस्ट की इस डिक्शनरी को खरीदा जाने लगा।

अब जॉन गिलक्रिस्ट का कद काफी बढ़ चुका था और भाषा विज्ञानी के तौर पर वो स्थापित हो चुका था।

ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन कलकत्ता में स्थित फोर्ट विलियम्स से चला करता था और वहीँ बैठ कर कर अंग्रेज भारत में अपनी जड़ें कैसे जमायें इसकी योजनायें बनाया करते थे।

डिवाइड एंड रूल की नीति का सफल परीक्षण करके उसे ही मुख्य औजार अंग्रेजों से बनाया हुआ था।

कम्पनी का काम दिन रात तरक्की करने लग रहा था अब कम्पनी को अपने नये अधिकारीयों को सिखाने के लिए एक ओफ्फिशियल भाषा की तलाश थी साथ में वो देश की जनता को भाषा के आधार पर भी बांटना चाहते थी।

इस काम का टेंडर जॉन गिलक्रिस्ट को मिला और उसने कलकत्ता के फोर्ट विलियम्स में “गिलक्रिस्ट का मदरसा” शुरू किया जहाँ बड़े अनुसन्धान और अनुभव से उसने फ़ारसी स्क्रिप्ट में हिन्दुस्तानी भाषा के शब्दों को लिख कर एक नई भाषा का निर्माण कर दिया।

इस भाषा को नाम देने के लिए गुलाम हमदानी मुशाफी द्वारा प्रयुक्त उर्दू शब्द को चुना जिन्होंने सन 1780 हिन्दवी , हिन्दुस्तानी , देहलवी बोलियों को ज़ुबाने उर्दू के जगह सिर्फ उर्दू लिखा था, ये महाशय जी भी जॉन गिलक्रिस्ट के समकालीन ही थे।

गिलक्रिस्ट के मदरसे में उर्दू भाषा बनाई गयी और चुन चुन कर लोगों को सिखाई जाने लगी , नए शब्द भी गढ़े गए और हिन्दवी , हिन्दुस्तानी , देहलवी बोली को उधेड़ के एक नए इकोसिस्टम की रचना कर दी गयी।

सन 1800 में जॉन गिलक्रिस्ट को 1500 रुपये महीने की तनख्वाह मिलती थी।

सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंघ जी की मृत्यु के बाद दस सालों तक अंग्रेजों की पंजाब में घुसने की हिमाकत नहीं हुई उन्हें 10 साल लगे पंजाब को अंग्रेजी राज में मिलाने में जो 1849 में ही संभव हो पाया।

सिंध को छोड़ कर आज जितना इलाका भी पश्चिमी पकिस्तान में आता हैं जो महाराजा रणजीत सिंघ जी का राज्य था वहां सन 1850 में उर्दू को आधिकारिक भाषा लागू कर दिया गया।

उर्दू पढ़े लिखे लोगों ने वहां महाराजा रणजीत सिंह जी द्वारा प्रफुल्लित शिक्षा व्यवस्था को बड़े करीने से कोने में लगा दिया।

पंजाबी सिखाने के कायदे और किताबें इक्कठी करके जलाई गयी पूरे इलाके की जनता का ब्रेन वाश कर दिया गया।

जब अंग्रेज लाहौर में घुसे तो वहां उन्हें 18 संस्थान तो सिर्फ लड़कियों की शिक्षा हेतु मिले , पंजाब की हरेक लड़की पढ़ी लिखी थी गुरुमुखी के ही एक स्वरुप लुंडी लिखने में हरेक महिला माहिर थी।

यह इतिहास है भाई जिसे आज खोद खोद कर निकालना पड़ता है।

जॉन गिलक्रिस्ट के मदरसे के 75 साल बाद उर्दू पढ़े लिखे लोगों से अलीगढ में मुस्लिम विश्वविधालय खड़ा किया जो उर्दू के अध्यन और प्रचार प्रसार का मुख्य केंद्र बन गया।

धीरे धीरे उर्दू सिखाने के मदरसे देश में खुलते चले गये और यह भाषाई डिवाइड एक दिन इतना बड़ा हो गया कि देश के टुकड़े हो गए।

वेस्ट पंजाब और ईस्ट बंगाल जहाँ पाकिस्तान बनना था वहां अलीगढ से उर्दू सीख कर गयी इलीट क्लास ने वहां की स्थानीय समृद्ध भाषाओं को इतना दबा दिया कि बंगालियों से तीस लाख जाने देकर अपनी जान 1971 में छुडा ली और वो फिरसे बंगाली पर फोकस हो गए।

वेस्ट पंजाब से जो आजकल विडियो आते हैं उसमें यह दर्द साफ़ झलकता है।

इधर हमें यह पढाया गया कि उर्दू दसवीं ग्यारहवीं शतब्दी में भारत में जन्मी “कोरा झूठ” यह झूठ बिलकुल उस लेवल का है जैसे पाकिस्तान में वहां के इतिहासकारों ने लिखा कि पाकिस्तान की तारीख सिंध पर मोहम्मद बिन कासिम के हमले से शुरू होती है।

भारतीय उपमहाद्वीप में जो टेंशन बरपी हुई है और आधुनिक काल के जितने हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई बौद्ध जिस स्वरुप में हैं इन सभी को आपस में भिडाने के लिए अंग्रेजों ने किताबों में छेड़ छाड़ की हुई है

एक दूसरे के लिए फाल्ट लाइंस जानबूझ कर बनाई हुई हैं।

अरब के मुसलमान कितनी सहजता से सबके साथ इंटरैक्ट करते हैं।

जबकि भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों से मिलो तो वो अलग ही फ्रीक्वेंसी पर ओपरेट होते हैं (विशेषकर पाकिस्तान और बांग्लादेश) उनकी बातें सुनो तो मालूम चलता है कि ये खुद को इस दुनिया में एडजस्ट ही नहीं कर पा रहे हैं।

गुरुद्वारा प्रबंधक एक्ट जिससे आज के दौर के सिख भाई चलते हैं उसमें से अंग्रेजों ने खालसा शब्द ही गायब किया हुआ है (भाई खुद चेक कर लेना कण्ट्रोल F करके, मेरे से मत लड़ना )

बिना खालसे के गुरुनानक का परिवार आज खुद को अल्पसंख्यक घटगिनती मान के बैठा हुआ है दुनिया को हक़ देने दिलाने वाले आज हक़ मांगते हुए नज़र आते हैं।

सबसे ज्यादा वो भाई ठगे गए हैं जो खुद को दलित माने बैठे हैं।

अंग्रेजों के समय में एक चमार रेजिमेंट हुआ करती थी जिसने अनेक युद्धों में फौजों से आत्म समर्पण करवाए थे अंग्रेजों ने चमार रेजिमेंट से सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फ़ौज पर हमला करने को बोला।

देशभक्त वीर चमार रेजिमेंट ने मना कर दिया अंग्रेजों से रेजिमेंट तोड़ दी।

उनकी वीरता की कहानियां गायब कर दी वर्तमान दौर में माँ के पेट से बच्चा पैदा होते ही वो शोषण का शिकार होकर डायरेक्ट दलित हो जाता है।

ऐसी इंजीनियरिंग देख कर मेरा मन दहाड़ें मार मार के रोता है।

आज भारतीय उप महाद्वीप का हरेक वर्ग एक दूसरे से डरा हुआ और खिंचा खिंचा घूम रहा है।

भारत में जो थोड़ी बहुत शान्ति दिखाई देती है उसका कारण बहुसंख्यक वर्ग का अपने मिलावटी धार्मिक किताबों से दूर रहना ही है।

जो वैदिक संस्कार प्राचीन काल से चले आ रहे हैं वही परिवारों से सीख सीख कर लोग काम चला रहे हैं उसी से पूरे खित्ते में शांति बनी हुई है।

अंग्रेजों के काल में लिखी हुई किताबें जिनमें हिन्दू धर्म के बारे में लिखा हुआ है और विवेचनाएँ की हुई हैं उसमें इतने करीने से मिलावट की हुई है जो उन्हें पढ़ कर सच मान बैठता है वो वैचारिक आत्महत्या का शिकार हो जाता है।

वैचारिक आत्महत्या कर चुके ज़िंदा लाश बन कर जगत में विचर रहे जहर के एक दो बंडलों से मेरा सामना हुआ तो मुझे पता चला कि बिना समझ के पढने लिखने के कितने भारी नुक्सान है।

शुक्र है कि मैं ज्यादा पढ़ा नहीं और यही टोटा ही आज मुझे नहीं सिर्फ हम सभी को बचाए हुए हैं।

इतिहास की खूबी यह होती है कि उसे ठीक नहीं किया जा सकता है उससे लड़ा नहीं जा सकता है लेकिन उससे सीखा तो जा ही सकता है।

शिक्षा शेरनी का दूध नहीं बताया था बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर जी ने इसमें भी मिलावट कर दी गयी है बाबा साहेब ने अंग्रेजी को शेरनी का दूध बताया था लोग अंग्रेजी ना पढ़ें इसके लिए नमक में आटा पेल दिया गया।

सबसे ज्यादा कौन ठगा गया है इस बात का फैंसला तो सबको अपने और एक दूसरे के हालात देख कर करना होगा।

लेकिन यदि चैन से जीना है तो शिक्षा का उपयोग वैचारिक कूड़ा चुग कर उसे फ़िल्टर करके एक दूसरे से अच्छी बातें सीख कर आगे बढ़ने की राह निकालनी पड़ेगी।

भारतीय उपमहाद्वीप के लोग बहुत भाग्यशाली हैं जहाँ हमें कितनी समृद्ध भाषाएँ संस्कृत तमिल, बंगाली गुजराती तेलगू कन्नड़ पंजाबी उर्दू सिन्धी बलोची पश्तो नेपाली बर्मी आदि मिली हैं अनगिनत बोलियाँ हैं हमारे पास।

हमें सभी भाषाएं बड़े प्यार मोहब्बत से सीखनी चाहियें और एक दूसरे का खूब सम्मान करना चाहिए क्यूंकि हम सभी के पूर्वज एक ही हैं।

अभी भी सबकुछ बर्बाद नहीं हुआ है इन्टरनेट के आ जाने से सब कुछ वापिस जुड़ने लग रहा है।

अंग्रेजों ने जो कुकर्म किये उससे वो बच नहीं सकें हैं उनके साम्राज्य में गधे हांड चुके हैं रही सही कसर समय जल्दी ही पूरी कर देगा।

पाकिस्तान से आने वाले विडियोज को मैं देखता हूँ तो मालूम चलता है कि सत्य की परते अब वहां भी उभरने लगी हैं।

सभी को इतिहास की खोज करनी चाहिए फाल्ट लाईन्स को ढूंढ कर उसपर मिटटी डालनी चाहिए और सबको बोलकर बताना चाहिए कि ये फाल्ट लाइन है जिसे अंग्रेजों ने पैदा किया था और शिक्षा के माध्यम से फैलाया।

ऐसा नहीं है कि अंग्रेजों से सब माड़ा ही माड़ा किया उनके भी अनेकों अच्छे काम हैं जिनका फल हम आज भोग रहे हैं।

मोटी बात बस एक ही ध्यान में रखनी चाहिए कि हमने देश बनाना है बिगाड़ना नहीं है , गलतियों से सीखना है और आगे बढना है।

#नानक_नाम_चढ़दी_कला_तेरे_भाने_सरबत_दा_भला