शोर शराबे धुएं और प्रदूषण का रौला रप्पा
2021 की दीपावली बीत गयी है और तमाम कोर्ट कचहरियों के बैन और पर्यावरणविदों की मार्मिक अपीलों के बावजूद दीपावली मनाने वालों ने दीपमाला करने के बाद ठीक ठाक मात्रा में पटाखे छोड़े और आज सुबह गलियां कूड़े से और आसमान स्मॉग से भरा पड़ा है।
दीपावली और पटाखों का क्या कनेक्शन है इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण ढूंढने जाएंगे तो नही मिलेगा। फिर ये पटाखे चलाने जा रिवाज़ कैसे विकसित हुआ और आज इसका क्या सिगनीफ़िकेन्स है और क्या रेल्व्वेन्स नज़र आती है इसके बारे में आज इस लेख के माध्यम से चर्चा करने का मूड है।
लेख लिखने की प्रेरणा
कल रात कोई ग्यारह बजे मेरे अजीज मित्र श्रीमान जगबीर कादियान जी जो पानीपत हरियाणा के निवासी है ने अपनी फेसबुक वॉल पर पोस्ट किया और लिखा कि “समझ मे नही आता इतना प्रदूषण करके कोनसे भगवान को खुश करते है अगर खुद को सनातनी कहते हो तो सनातनी बनो प्रकृति की पूजा होती ना कि प्रकृति नाश करना, पाखंडी लोग, कोइसा ज्यादा ज्ञान ना पेलियो म्हारे धोरै पहले बहोत है।”
हालांकि ज्ञान ना पेलने की हिदायत साफ़ दी हुई थी लेकिन मैं भी क्या करता रोहतकी हूँ दिमाक में खाज मची और एक धारा ज्ञान कि फूट पड़ी।
मैंने जब ज्ञान की बहती धारा में हाथ डाल कर चेक किया तो उसमें पहले यह सवाल था कि चींटी, चिड़िया, पौधे पेड़ झाडी, गाय कुत्ते और पत्थर को प्यार करने वाले पूजने वाले सनातन समाज के बच्चों को ये पटाखे चलाने को किसने और कब बोला होगा, कैसे ये रिवाज बना होगा और कब यह पागलपन में तब्दील हुआ और पटाखे चलाने से कोई लाभ शाभ भी है या ये निरे टोटे और गाली खाने और दूसरे के उपदेश पीने का काम है।
इंडियन आर्म्स एक्ट 1878 ने किया है सनातन का बड़ा नुक्सान
ज्ञान धारा जब आगे बढ़ी तो उसमें मुझे सबसे पहले आर्म्स एक्ट 1878 तैरता नज़र आया और उसे देखते ही मन मे ख्याल आया ओ तेरे की यही तो है वो जिसने सनातन के बच्चों को शस्त्र विहीन कर दिया और हमारे आत्मसमान के रक्षक हमारे शस्त्र जिन्हें हम सदियों से अपने साथ रखते थे को छीन कर हमसे सदा सदा के लिए अलग कर दिया और हमारी सुरक्षा की जिम्मेवारी प्रशासन के भरोसे रख छोड़ी। शास्त्र जिनसे हमारे मनों में विद्या और मर्यादाओं का प्रकाश हरदम बना रहता था वो 1834 में लार्ड मैकाले ने उसकी जड़ों में तेल पहले ही डाल दिया था।
सनातनियों के प्रोसेस इन्नोवेशंस
अब हमारा सनातन समाज कोई कुएं का मेंढक तो है नही क्योंकि यह बहुत बड़ा है और हमारे यहां धर्म के ऊपर संस्कृति का एक विशाल नेटवर्क है जिसमें नए आइडियाज की तरंगें हरदम प्रफुल्लित होती रहती हैं।
जैसे अंग्रेजों से भारत को आजादी दिलाने में सावर्जनिक गणेशोत्सव लोगों को एकजुट करने का ज़रिया बना. अंग्रेजों के खिलाफ लोगों की एकजुटता के लिए तिलक ने धार्मिक मार्ग चुना। साल 1890 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तिलक अक्सर समुद्र की चौपाटी पर जाकर बैठते और लोगों को एकजुट करने का तरीका सोचते। इसके बाद ही गणेशोत्सव को घरों से निकाल कर सार्वजनिक स्थल पर मनाने और हर जाति के लोगों को शामिल करने की रणनीति बनाई गयी।
विघ्नहर्ता गणेश की पूजा भारत में बहुत पुराने समय से ही होती रही है। महाराष्ट्र के पेशवाओं ने गणेश उत्सव का त्योहार मनाने की परंपरा शुरू की थी। इसके बाद सार्वजनिक गणेश उत्सव शुरू करने का श्रेय तिलक को जाता है। बाल गंगाधर तिलक ने जनमानस में सांस्कृतिक चेतना जगाने, अंग्रेजों के खिलाफ सन्देश देने और लोगों को एकजुट करने के लिए ही सार्वजनिक गणेश उत्सव की शुरूआत की।
कांग्रेस पर 1885 से 1905 पर वर्चस्व रखने वाले व्योमेशचंद्र बनर्जी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, बदरुद्दीन तैयबजी और जी सुब्रमण्यम अय्यर जैसे नेताओं का उदारवादी खेमा नहीं चाहता था कि गरम दल के नेता तिलक सार्वजनिक गणेश उत्सव शुरू करें।
इसकी वजह यह थी कि 1893 में मुंबई और पुणे में दंगे हुए थे, गणेश उत्सव के सार्वजनिक आयोजन से दोबारा इस तरह की घटना हो सकती थी। इसके बाद बाल गंगाधर तिलक का साथ लाला लाजपत राय, बिपिनचंद्र पाल, अरविंदो घोष, राजनरायण बोस और अश्विनीकुमार दत्त जैसे नेताओं ने दिया और सार्वजनिक गणेश उत्सव की शुरुआत हुई।
हमारे सनातन समाज में वक्त और हालातों के मुताबिक प्रयोगों की खुली छूट है इसीलिए धर्म से एक दर्जे ऊपर संस्कृति को स्थापित किया गया है। ये पटाखे शटाखे धर्म का हिस्सा ना होकर ये संस्कृति का हिस्सा हैं और इनकी शुरुआत कैसे हुई होगी अब इसकी खोज करते हैं।
एक बात को पहले समझ लेना ठीक होगा कि हमारे सनातन समाज में कोई किताब कोई व्यक्ति कोई भूतकाल धाँस भी मैटर नही करता है। सब कुछ एक रेफरेन्स से ज्यादा कुछ नही है। सीखना है सीखो नही सीखना अपनी इसीतीसी कराओ कोई भी आपके घर किसी तरह की कोई शिकायत लेकर नही आता।
यहां हरेक आदमी परमात्मा से सीधे जुड़ा हुआ माना गया है परमात्मा और व्यक्ति के बीच मे किसी भी तरह के ठेकेदार यानि फ़िल्टर या वोल्टेज स्टेबलाइजर का कोई कांसेप्ट नही है। इसीलिए यहाँ अपने परमात्मा से प्यार करने, पूजने, सवाल पूछने, उलझने, खाज करने,लड़ने मरने की खुली छूट है। कोई किसी को कुछ नही कहता है।
यहां कोई जरूरी नही है कि सभी ने राम की तरह जीना है कृष्ण की तरह जीना है उसको अपने जीवन मे उतारना है।यहां खुली छूट है राम बनो, रावण बनो, कंस बनो या कृष्ण बनो आप अपने कर्मो के खुद ही जिम्मेवार हो। परमात्मा ने आपको जीवन देकर एक बहुत बड़ी ओप्पोर्टयूनिटी यानी अवसर दिया है जिसको भुनाना आपका खुद का कर्तव्य है।
लर्निंग और आसानी के लिए तमाम तरह के रेफरेन्स जैसे राम की मर्यादा, लक्षमण और सीता के धर्म, रावण की जीवनशैली और ज्ञान, कृष्ण की चालाकियां,हनुमान जी की भक्ति, कंस और कौरवों के कुकर्म, पांडवों का संघर्ष आदि बहुत सारा सौदा सपटा उपलब्ध है कंडीशन कोई नही है मानो चाहे मत मानो। कितना भी सीख लो बेशक़ मत सीखो।
सारी बात का निचोड़ निकालो तो हरेक सनातनी को यह फील करने की पूरी छूट है कि अपुन ही परमात्मा है।
सनातन संस्कृति में पटाखों का सिगनीफ़िकेन्स
आर्म्स एक्ट की विभीषिका में जब सारा सनातन समाज लपेटा गया तो सनातन की समझ रखने वालों ने यह पाया कि ग्रामीण इलाकों में बसने वाले सनातनी तो फिर भी अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र रख सकते हैं उनके रूटीन में काम आने वाले डंडे जेली गंडासे भी शस्त्र जैसी ही फीलिंग दे देते हैं। इसके अलावा लगभग सभी के पास किसी न किसी तरीके का खूंडा हथियार लुका छिपी खाते में जमीन में दबा दीवार में चिना होता ही है न जाने कब आवश्यकता आन पड़े।
शहरी सनातनी स्टॉक में हथियारों के प्रति उदासीनता और शस्त्र वाली फीलिंग ना आ जाये और वो इस्लाम के ग्रास आसानी से बन जाएं इसीसोच के साथ उनका बारूद से परिचय बनाये रखने के लिए पटाखों की संस्कृति का आविष्कार किया गया है।
पटाखे चलाना एक रोमांच भरा काम है जिसे बच्चों के जरिये कराया जाता है। पटाखे कई तरह के होते हैं, बिंदी वाले पटाखे, रील, फिर बजाने के लिए बंदूक, हैंडग्रेनेड के छोटे वर्जन धरती बम, बिजली बम, बुलेट बम, फिरकी, राकेट, अनार और राकेट लांचर और तोप की तरह बजने वाले सीरियल बम।
सभी तरह के पटाखों में रोमांच होता है, रोमांच माने शरीर मे एड्रेलिन हार्मोन का सिक्रीशन जिसकी सनातन के शहरी स्टॉक को अत्यंत घोर आवश्कयता है क्योंकि उनके जीवन मे ऐसे पल बहुत कम आते हैं जब उनके मन मे रोमांच उतपन्न होता है जिसकी शरीर के आन्तरिक अंगों को बहुत आवश्यकता होती है।
पटाखे जलाने में योजना की भी आवश्यकता होती है। सेफ्टी प्रीकाशन और पटाखे को आग लगा कर भागने की योजना और किंतनी दूरी पर पटाखे फोड़ने हैं। अनेकों सावधानियां जैसे हाथ न जल जाए, कपड़े ना जल जाएं आदि आदि। जो पटाखे छोड़ते हैं उनके अलावा उन्हें देखने वाले गाइड करने वाले और पटाखों का लिफाफा पकड़ पर बैठने वाले सभी एक टीम का हिस्सा होते है जिसमें कोआर्डिनेशन भी होता है और कमांड भी होती है।
पटाखे चलाने की संस्कृति सनातन समाज में युद्धक स्पिरिट को जीवित रखने के लिए की गई है जिसकी आज के दौर में नितांत आवश्यकता है।
बारूद का अविष्कार चीन में दसवीं शताब्दी में हो गया था और तेहरवीं शताब्दी में इसका राज चीन से बाहर निकला और 1526 में बाबर इसे तोप में भरकर भारत भूमि की छाती पर चढ़ आया। उसके बाद जो हुआ वो आप सब जानते ही हैं।
सारी गल्ल दा निचोड़
सनातन के विचारकों ने देश काल के हालात समझ जानकर सनातनियों में पटाखों की संस्कृति विकसित करके इसे दीपावली से जोड़ दिया और आज जो टूटा भना सा शौर्य शहरी लोगों में बचा है उसमें इन पटाखों का महती योगदान है। प्रदूषण स्मॉग और रोना स्यापा सब छोटी बातें हैं, सनातन की जड़ों में तेल डालने की कामना रखने वालों को तो बस अवसर चाहिए उन्होंने तो तुम्हे तुम्हारी नज़रों में ही गिराने का प्रयास करना ही है।
शस्त्र और शास्त्र से दोबार कैसे जुड़ा जाए मुझे वो ज्ञान की धारा में तैरता नज़र आया इंडियन आर्म्स एक्ट 1878 समझा गया और मेरा पटाखों के प्रति नज़रिया एकदम बदल गया। कानों को फोड़ते पटाखे सुमधुर लगने लगे और हवा में घुला हुआ बारूद जंग के मैदान में पसरी हवा वाली फीलिंग देने लगा। इस लेख को गले से नीचे उतारने के लिए बस एक बात और समझ लो के सौ करोड़ लोगों ने अपने बजट से गोले बारूद के प्रयोग और आग से खेलने का बेसिक प्रशिक्षण लिया है जो उनके अपने अस्तित्व के लिए बेहद जरूरी है।