डॉ सुरेंद्र दलाल एक सच्चे कर्मठ वैज्ञानिक से मुलाकात और उनकी यादें

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डॉ सुरेंदर दलाल जी के साथ उनके घर पर फोटो क्रेडिट : अजय गोदारा प्रेसिडेंट अर्थ रोहतक

डॉ सुरेंद्र दलाल जी एक सच्चे और धुरंधर वैज्ञानिक जी से मुलकात की यादें तो बहुत हैं लेकिन मुझे अपने जीवन में स्वर्गीय डॉ Surender Dalal जी से मिलने का मौका सिर्फ पांच या छह बार ही मिला है लेकिन फिर भी यह मुलाकातें सुबह से शाम तक बैठने वाली थी, उनको काम करते देखना और उनके नजरिये से मुद्दों को समझना , मेरे लिए एक दम नया अनुभव था।

कोई इंसान सरकारी नौकरी में काम करते हुए लोगों का प्यार पाते हुए वैज्ञानिक कार्य कर सकता है , यह मैंने डा सुरेंदर से मिलने के बाद ही अनुभव किया। 19 मई 2013 को उनके अंतिम संस्कार में गाँव ललित खेडा , इग्राह और निडाना के पुरुष और महिला किसानो को उनके बारे में बातें करते सुना। निडाना में तो जा कर मैंने खुद चमत्कार देखा है।

किसानो के खेत से और आम आदमी की प्लेट से जहर को कैसे बाहर किया जाये और किसान आत्मविश्वास से खेती कैसे करे इसका जुगाड़ डा साहब ने पूरा पूरा बिठा दिया है। जो काम इतने बड़े संस्थान नहीं कर पाए, डा० साहब ने इतनी सहजता से कर दिया है। डा० साहब अपने पीछे एक बड़ी जिम्मेवारी छोड़ गए हैं, जिसको निभाने का दारोमदार सबसे पहले उन किसानो पे है जो उनकी जीवित प्रयोगशाला के हिस्से रहे हैं।

डा० साहब से एक बार अपना अनुभव साँझा करते हुए मुझे बताया था की वो हिसार में डाक विभाग में नौकरी करते थे तो एक मित्र को चार सौ रुपयों की जरूरत पड़ गयी, उनके पास सिर्फ दस रूपये थे जिसका उन्होंने मनी आर्डर कर दिया। डा० साहब ने ऑफिस की नौकरी के बाद रिक्शा किराये पे ले कर चलाना शुरू किया और एक महीने में चार सौ रुपये इकट्ठे कर के मित्र को भेज दिए।

उन्होंने अपने आप से एक दिन कहा कि अगर नौकरी के बाद रिक्शा चलाया जा सकता है तो पढ़ा भी तो जा सकता है, उन्होंने तत्काल हरियाणा कृषि विश्वविधालय में दाखिला ले लिया। कभी ऑफिस से बंक और कभी नौकरी से डा० साहब ने MSc. कर ली, तब तक कोई लफड़ा नही हुआ।PHD में दाखिले के समय यूनिवर्सिटी ने कानून और कायदे का हवाला देते हुए दाखिला कैंसिल कर दिया।

डा० साहब सुप्रीम कोर्ट से आर्डर ले आये और पढाई जारी राखी। जब कम्प्यूटर सीखने की बात आई तो पहले कम्प्यूटर घर पे उठा लाये और फिर एक सिखाने वाले को घर बुलवाया, उन्होंने ने कम्प्यूटर पहले खुद सीखा और फिर अपनी खेत कीट पाठशाला के किसानो को भी सिखाया। जब जाट भवन जींद में किसानो को सम्मानित करने की बात चली तो उन्होंने किसानो को नकद पुरस्कार दिलवाने की बजाये लैपटॉप दिलवाने की सिफारिश की।

दोस्तों डा० सुरेंदर दलाल का शरीर जरूर पंचतत्व में विलीन हो चुका है, लेकिन उनकी आत्मा सच्चे वैज्ञानिकों को हमेशा सही राह दिखाती रहेगी। डा० सुरेंदर दलाल जी कार्य देखने और पढने के लिए नीचे दिए गए यूआरएल पर क्लिक करें http://drdalaljind.blogspot.com/?m=1

हरियाणा कृषि विश्वविधालय जहाँ हरियाणा के कृषि सेक्टर में काम करने वाले युवा युवतियां पढ़ कर निकलते हैं वहां डॉ सुरेंदर दलाल जी के काम पर एक शोधपीठ की स्थापना होनी चाहिए और एक बड़ी मूर्ती लगाई जानी चाहिए जो छात्र छात्राओं को कीट विज्ञान में शोध करने और किसानों में मनों से कीटों का भय निकालने में मदद करे।

डॉ. सुरेंद्र दलाल जी का जीवन परिचय

भाई नरेंद्र कुंडू जी की कलम से

हरियाणा प्रदेश के जींद जिले के जुलाना हलके के गांव नंदगढ़ में श्री गणेशीराम तथा श्रीमति धनपति देवी के घर अप्रैल 1962 में एक महान विभूति ने जन्म लिया। यह महान विभूति थे कीट साक्षरता के अग्रदूत डा. सुरेंद्र दलाल। डा. सुरेंद्र दलाल के पिता श्री गणेशीराम फौज में सैनिक थे और माता धनपति देवी एक सुशील गृहिणी थी। डा. सुरेंद्र दलाल एक किसान परिवार से सम्बंध रखते थे।

डा. सुरेंद्र दलाल की प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई और नौवीं कक्षा तक की पढ़ाई गांव के सरकारी स्कूल से पूरी करने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने सोनीपत के हिन्दू हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा पास की। तीन भाइयों और दो बहनों में सबसे बड़े होने के कारण छोटे भाइयों और बहनों की पढ़ाई की जिम्मेदारी भी इन्ही के कंधों पर थी। छोटे भाई विजय दलाल, जगत सिंह तथा राजसिंह को पढ़ाने की जिम्मेदारी इन्होंने बखूबी निभाई। घर की आर्थिक स्थित कमजोर होने के कारण छोटे भाइयों को पढ़ाने तथा घर की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए डा. सुरेंद्र दलाल ने पढ़ाई बीच में ही छोड़कर हिसार में नौकरी शुरू कर दी।

इस दौरान 1979 में डा. सुरेंद्र दलाल की शादी हो गई और श्रीमति कुसुम जैसी सुशील और सर्वगुण संपन्न जीवन संगिनी के साथ उन्होंने अपने जीवन का आगे का सफर शुरू किया। श्रीमति कुसुम ने भी हर तरह की परिस्थितियों में डा. सुरेंद्र दलाल का तहदिल से साथ दिया। श्रीमति कुसुम से इन्हें दो पुत्रियां प्रीतिका, रीतिका तथा एक पुत्ररत्न अक्षत की प्राप्ति हुई। श्रीमति कुसुम की शिक्षा विभाग में नौकरी लग जाने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने दोबारा से अपना पढ़ाई का सफर शुरू करते हुए अगस्त 1979 में हिसार के कृषि विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. (आनर्स) कृषि में दाखिला लिया।

1983 में बी.एस.सी. की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1986 में एम.एस.सी. तथा 1991 में इसी विश्वविद्यालय से उन्होंने पौध प्रजनन (Plant Breeding) में पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की। इन दोनों ही डिग्रियों के दौरान उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) से फैलोशिप भी मिला। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. की पढ़ाई के दौरान ही वे प्रगतिशील छात्र संगठन एस.एफ.आई. के सम्पर्क में आए और वामपंथी विचारधारा से जुड़े।

डा. सुरेंद्र दलाल ने एस.एफ.आई. के साधारण सदस्य से सफर शुरू करते हुए आगे बढ़कर राज्य अध्यक्ष तक की जिम्मेदारी भी निभाई। किसानों तथा गरीब वर्ग के प्रति डा. दलाल का विशेष लगाव रहा। इसलिए पढ़ाई के दौरान छात्र आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाने के साथ-साथ मजदूरों, किसानों और कर्मचारियों के संघर्षों में भी उनका अहम योगदान रहा। डा. सुरेंद्र दलाल का सम्पूर्ण जीवन बड़ा ही संघर्ष भरा रहा और इन्होंने बड़ी से बड़ी कठिनाई का भी डटकर मुकाबला किया।

डा. सुरेंद्र दलाल ईमानदार, कठोर परिश्रमी, दृढ़ संकल्प और दूरदर्शी तथा एक अच्छे वक्ता भी थे। वक्तव्य में उनका कोई शानी नहीं था। डा. दलाल प्रत्येक विषय पर गंभीरता से विचार करते हुए उसकी गहराई तक जाते थे। पी.एच.डी. की डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1992 में हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी की ब्रांच कोल (कुरुक्षेत्र) में साइंटिस्ट के तौर पर नौकरी की शुरूआत की। लगभग एक वर्ष तक यहां पौध प्रजनन पर कार्य करने के बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने इस नौकरी से त्याग पत्र दे दिया।

इसके बाद डा. दलाल ने 1994 में कृषि विभाग में ए.डी.ओ. के पद पर ज्वाइन किया और यहां से ऑन डेपुटेशन साक्षरता अभियान में जुड़कर उन्होंने अनपढ़ महिला और पुरुषों को अक्षर ज्ञान का रसपान करवाकर साक्षर करने का काम किया। डा. सुरेंद्र दलाल के पास सामाजिक सांस्कृतिक और परम्परा को लोगों की चेतना में विकसित करने तथा उन्हें संगठित करने की बेजोड़ कला थी। जींद में अन्य साथियों के साथ मिलकर साक्षरता सत्संग और सांग की रचना करना तथा उनका मंचन करना इसका जीता जागता एक उदाहरण है।

वे मुश्किल से मुश्किल विषय को बहुत जल्द लोकभाषा में परिवॢतत कर उसे लोगों के बीच प्रस्तुत करने में भी माहिर थे। वे बड़े ही स्पष्टवादी और हाजिर जवाबी भी थे। लोक इतिहास में उनकी गहरी रुचि थी। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लिजवाना और आसपास के गांवों के लोगों की भूमिका पर भी उन्होंने शोधपूर्ण कार्य किया। भूरा और निघाइया नम्बरदारों के नेतृत्व में इलाके की जनता द्वारा अंग्रेजों, जींद, पटियाला और नाभा के राजाओं के विरुद्ध किए गए शानदार संघर्ष को उन्होंने नाटक, रागिनी और किस्सों के रूप में जनता के सामने प्रस्तुत किया।

उनकी रचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि वे एक महान इतिहासकार भी थे। साक्षरता अभियान के माध्यम से लोगों को अक्षर ज्ञान का रसपान करवाने के बाद भी समाजसेवा के प्रति उनकी जिज्ञासा कम होने की बजाए बढ़ती ही चली गई। साक्षरता अभियान के बाद वापिस कृषि क्षेत्र की जिम्मेदारी मिलने पर समाज के प्रति उनका लगाव ओर भी ज्यादा बढ़ता चला गया। डॉ. दलाल के पास निडाना तथा आस-पास के गांवों के कृषि विकास अधिकारी (एडीओ) की जिम्मेदारी थी।

वर्ष 2001 में एक अंग्रेजी समाचार पत्र में A collective failure टाइटल से प्रकाशित हुए सम्पादकिये ने डॉ. सुरेंद्र दलाल के जीवन में उथल-पुथल मचा दी। 2001 में कपास में आई अमेरिकन सूंडी से कपास की फसल पूरी तरह से तबाह हो गई थी। महज अढ़ाई इंच की इस सूंडी के सामने किसान के साथ-साथ कृषि विभाग ने भी अपने घुटने टेक दिए थे। 35-35 कीटनाशकों के प्रयोग के बाद भी इस सूंडी पर काबू नहीं पाया जा सका था। इस अंग्रेजी के समाचार पत्र के सम्पादकिये में हुई कृषि विभाग की फजिहत ने डॉ. सुरेंद्र दलाल के दिल को गहरी चोट पहुंचाई। इसके बाद डॉ. सुरेंद्र दलाल ने अपना पूरा ध्यान कीट नियंत्रण की तरफ लगा दिया लेकिन वर्ष 2005 में कपास की फसल पर हुए मिलीबग के प्रकोप के कारण कपास की फसल पूरी तरह से तबाह हो गई थी और

इस सफेद पोश (मिलीबग) के काले कारनामे जग-जाहिर हो चुके थे। इसके बाद डॉ. दलाल ने अपना ध्यान कीट नियंत्रण से हटाकर कीटों की पहचान की तरफ दिया तो वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब तक किसानों को दुश्मन (कीटों) की पहचान नहीं होगी तब तक वह कीटनाशकों के इस दलदल से बाहर नहीं निकल पाएगा। कीटों पर किए गए शोध से वर्ष 2007 में उन्होंने कपास की फसल में अमेरिकन सूंडी का तोड़ ढूंढ़कर पहली सफलता हासिल की और इस कामयाबी में उनके मार्गदर्शक बने रूपगढ़ गांव के किसान।

एक तरह से यह उनका बडप्पन ही था कि उन्होंने इसी गांव के कीटाचार्य राजेश नामक किसान को अपना कीट ज्ञान का गुरु मानकर अपने शोधों को गति दी। इसके बाद वर्ष 2008 में जींद जिले के निडाना गांव के खेतों से उन्होंने कीट ज्ञान क्रांति की लौ जलाई। डॉ. दलाल व कीटाचार्य किसानों ने दिन-रात मेहनत कर फसल में मौजूद मांसाहारी तथा शाकाहारी कीटों की पहचान की तथा उनके क्रियाकलापों की बारिकी से जानकारी हासिल की।

डॉ. दलाल ने वर्ष 2010 में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी इस अभियान में शामिल कर महिलाओं के लिए भी किसान खेत पाठशाला की शुरूआत की। अपने आप में यह भी एक अनोखी बात है कि पौध प्रजनन पर पी.एच.डी. करने के बावजूद भी उन्होंने कीटों पर शोध कर एक नया अध्याय लिखा। अपनी 6-7 वर्षों की अथक मेहनत के बूते ही उन्होंने देश के किसानों को एक नई दिशा देने का काम किया। कीटों पर शोध करते हुए उन्होंने कपास की फसल में पाए जाने वाले 206 कीटों की पहचान की। इनमें 43 किस्म के शाकाहारी कीट तथा 163 किस्म के मांसाहारी कीट हैं।

इन कीटों में से भी चबाकर खाने वाले, रस चूसने वाले, फूल-फल, पत्तियां खाने वाले कीटों की अलग-अलग श्रेणियां बांट दी। यह उनके शोधों का ही परिणाम है कि उन्होंने पिछले 40 वर्षों से किसानों और कीटों के बीच चली आ रही इस लड़ाई को समाप्त करने तथा किसानों को लड़ाई के इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने के लिए कीट ज्ञान रूपी एक अचूक हथियार दिया। डा. दलाल ने जिले के दर्जनभर से ज्यादा गांवों के किसानों को जय कीट ज्ञान के एक सूत्र में पिरो दिया। डा. दलाल के कुशल मार्गदर्शन की बदौलत ही आज जींद जिले के लगभग दर्जनभर से भी ज्यादा गांवों के पुरुष तथा महिला किसान कीट ज्ञान की डिग्री हासिल कर पाए।

अपने प्रयोगों की बदोलत ही डा. दलाल तथा यहां के किसानों ने कपास जैसी कमजोर फसल में भी बिना पेस्टीसाइटों का इस्तेमाल किए अच्छा उत्पादन लेकर दुनिया को यह दिखा दिया कि जब कपास जैसी कमजोर फसल बिना पेस्टीसाइड के पैदा की जा सकती है तो अन्य फसलों में भी बिना पेस्टीसाइड का इस्तेमाल किए अच्छा उत्पादन लिया जा सकता। इसके बाद डा. सुरेंद्र दलाल ने इस मुहिम को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए खाप पंचायतों को इस मुहिम से जोडऩे का काम किया। डा. दलाल से मार्गदर्शन लेकर यहां के कीट मित्र किसानों ने वर्ष 2012 में खाप पंचायतों की अदालत में एक अर्जी भेजकर पिछले 40 वर्षों से किसानों और कीटों के बीच चली आ रही इस अंतहीन लड़ाई को समाप्त करवा बेवजह मारे जा रहे बेजुबानों को बचाने की गुहार लगाई।

बड़े-बड़े विवाद सुलझाने के लिए मशहूर रही खाप पंचायतों ने किसानों की इस अर्जी को स्वीकार करते हुए उन्हें सही न्याय करने के लिए आश्वस्त किया। इस विवाद में खाप पंचायतों द्वारा हस्तक्षेप किए जाने के बाद खाप पंचायतों का एक सामाजिक चेहरा फिर से लोगों के सामने आया। खाप पंचायतों के प्रतिनिधियों ने कीटाचार्य किसानों के निमंत्रण को स्वीकार कर इस अंतहीन लड़ाई को खत्म करने के लिए लगातार 18 सप्ताह तक किसान खेत पाठशालाओं में पहुंचकर कीट ज्ञान अर्जित किया। इन 18 सप्ताह के दौरान प्रदेशभर की लगभग 90 खापों के प्रतिनिधि कीट अवलोकन के लिए इन पाठशालाओं में पहुंचे। डा. सुरेंद्र दलाल ने अपनी समग्र दृष्टि का प्रयोग करते हुए खाप पंचायतों के माध्यम से किसानों में कीट ज्ञान का खूब प्रचार किया।

इसी का परिणाम था कि खेती के क्षेत्र में समृद्ध हो चुके पंजाब जैसे प्रदेश के किसान भी यहां के किसानों से कीट ज्ञान के गुर सीखने के लिए समय-समय पर यहां पहुंचने लगे। इतना ही नहीं डा. दलाल ने टैक्नालाजी के इस युग को देखते हुए ब्लाग तथा इंटरनेट के माध्यम से विदेशों में भी कीटनाशक रहित खेती की अलख जगाई। डा. दलाल ने प्रभात कीट पाठशाला, निडाना गांव का गौरा, अपना खेत अपनी पाठशाला, महिला खेत पाठशाला, कृषि चौपाल, नौगामा ब्लाग तथा यू-ट्यूब पर भी कीटों की क्रियाकलापों की वीडियों डालकर विदेशियों का ध्यान इस तरफ आकृष्ट किया।

अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं करते हुए कीट साक्षरता के इस अग्रदूत ने कीट ज्ञान की इस क्रांति को एक विकल्प के रूप में किसानों के बीच स्थापित कर दिया। दुर्भाग्यवश फरवरी 2013 में डा. सुरेंद्र दलाल स्वाइन फ्लू की चपेट में आ गए। डा. दलाल को उपचार के लिए हिसार के एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाया गया। यहां पर वैल्टीनेटर की सुविधा मुहैया नहीं हो पाने के कारण चिकित्सकों ने डा. दलाल को दूसरे अस्पताल में रैफर कर दिया लेकिन यहां पर वह सघन कोमा में चले गए। इसके बाद डा. दलाल को दिल्ली के फोॢटज अस्पताल में ले जाया गया।

लगभग तीन माह तक अस्पताल में ङ्क्षजदगी और मौत के बीच जूझने के बाद आखिरकार कीट साक्षरता के अग्रदूत डा. सुरेंद्र दलाल दुनिया से विदा हो गए। अपना सबकुछ दाव पर लगाकर कि सानों को जगाने वाला किसानों का यह मसीहा हमेशा-हमेशा के लिए सौ गया। 18 मई 2013 को डा. सुरेंद्र दलाल ने हिसार के ङ्क्षजदल अस्पताल में आखिरी सांस ली। डा. दलाल को बचाने के लिए तीन माह तक परिवार के सदस्यों द्वारा की गई अथक मेहनत, बड़े-बड़े डाक्टरों की दवाएं तथा देशभर से डा. दलाल के शुभचिंतकों की दुवाएं भी बेअसर हो गई।

19 मई 2013 को उनके पैतृक गांव नंदगढ़ में हजारों लोगों ने नम आंखों के साथ उन्हें अंतिम विदाई दी। उनकी अंतिम यात्रा के दौरान पूरा नंदगढ़ गांव अपने इस डाक्टर के लिए फफक-फफक कर रो रहा था। चारों तरफ से उमड़ रहे आंसुओं के सैलाब के कारण गांव का माहौल पूरी तरह से गमगीन था और हर चेहरे पर इस महान विभूति को खो देने का दर्द साफ झलक रहा था। डा. दलाल के चले जाने से अकेले हरियाणा प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश को बड़ी क्षति हुई है। यह क्षति कभी पूरी नहीं हो सकती। आज भले ही डा. दलाल हमारे बीच प्रत्यक्ष रूप से मौजूद नहीं हों लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से वे हमारे बीच हर वक्त मौजूद रहेंगे।

उनके अनुभव, उनका कीट ज्ञान का संदेश, उनके विचार, उनकी जीवनशैली, उनका स्पष्टवादी व्यवहार, समाज के प्रति उनका सम्र्पण हमेशा हमें अपने बीच उनका एहसास करवा रहा है। यह इसी का परिणाम है कि डॉ. दलाल के देहांत के बाद भी उनके द्वारा जलाई गई कीट ज्ञान की यह मशाल निरंतर आगे बढ़ती जा रही है। डॉ. दलाल के देहांत के बाद रणबीर मलिक के नेतृत्व में इस अभियान ने एक बार फिर से रफ्तार पकड़ी और वर्ष 2013 में राजपुरा भैण में फिर से खाप पंचायतों ने अपनी निगरानी में इस मुकदमें की एक बार फिर से सुनवाई की।

इसके बाद 20 फरवरी 2015 को निडाना गांव के डैफोडिल्स पब्लिक स्कूल में सर्व खाप महापंचायत का आयोजन किया गया। इस महापंचायत में प्रदेश ही नहीं बल्कि प्रदेश से बाहर की खापों के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। हरियाणा एवं पंजाब हाईकोर्ट के सेवानिवृत्ति न्यायाधीश एस.एन. अग्रवाल, खाद्य विशलेषक डॉ. देवेंद्र शर्मा तथा हरियाणा किसान आयोग के सचिव डॉ. आर.एस. दलाल को न्यायिक कमेटी का सदस्य नियुक्त किया गया।

इस महापंचायत में किसान व कीटों ने बारी-बारी अपना पक्ष रखा। कीटाचार्य किसानों ने पंचायत में कीटों की तरफ से पक्ष रखा। पूरे मामले की गंभीरता से सुनवाई करने के बाद न्यायिक कमेटी ने यह निष्कर्ष दिया कि कीट साक्षरता की मुहिम से जुड़े किसानों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। डॉ. दलाल द्वारा शुरू की गई कीट ज्ञान की मुहिम को बिना देरी के किसानों के बीच पहुंचाया जाना चाहिए, ताकि राज्य में जल्द से जल्दी किसानों के हित में कीटनाशियों के उपयोग को रोका जा सके।