
कैथल क्षेत्र के गांवों में किसान खेतों में कूप आदि निर्माण करते हैं और उसके ऊपर घिया तौरी कद्दू पेठा की बेलें चढ़ा देते हैं।
कल ऐसे ही एक कूप के ऊपर चढ़ कर मैंने भी घिया का निरीक्षण किया था। उसी फोटो को देख कर एक सूझवान मित्र का सुझाव आया था कि बेल में वेजिटेटिव ग्रोथ अधिक है इसमें प्रूनिंग की जाए तो ज्यादा उत्पादन मिलेगा।
ज्यादा उत्पादन सुनकर मुझे भी जोश आया कि शाम को सूझवान मित्र से बुजुर्ग किसान भाग सिंह जी का वार्तालाप करवाऊंगा।
शाम को वापिसी लौटते समय जब भागसिंह जी की बैठक में पहुंचे तो वहां उनका बेटा खुशवंत सिंह और परिवॉर के अन्य सदस्य और सरदार अवतार सिंह जी बैठे थे और इस आईडिया पर विचार हुआ था तो चौंकाने वाला नज़रिया सामने आया जिसमे कुछ महत्वपूर्ण बिंदु उभरे
1. साडी जरूरत बस 1 किलो सब्जी प्रतिदिन है उससे ज्यादा नही चाहिए।
2. हमने इन बेलों पर कोई काम नही करना है जो मिल जाये बस उतना काफी है।
3.हमें ज्यादा चाहिये होगा तो हम ज्यादा बेलें लगा लेंगे।
4.ये बेलें सिर्फ सब्जी लेने के लिये नही है,इनसे हरियाली का प्रकाश होता है जो आंखों को हरदम सोहणी लगती है। सब्जी तो एक बार तोड़ेंगे लेकिन हरियाली सारा दिन अच्छी लगती है।
5. ये बेलें सिर्फ हमारे लिए सब्जी देने के लिए नही है, इन पत्तों को बहुत सारे कीड़े पतंगे पक्षी खाते हैं। हमें हमारी सब्जी मिल जाती है और कीट पतंगों को भोजन।
6.जिन कूपों के ऊपर बेलें होती हैं उनके अंदर भूसा भी ठीक रहता है पशु को उसके स्वाद में फर्क महसूस होता है।पशु चाव से खाते हैं। जरूर तापमान में बदलाव की वजह से ऐसा होता होगा।
7.कुदरती जंगली तौर पर बिना खाद जहर के उगी सब्जी का स्वाद हमें पसंद है।
8. हम तो कीड़ा लगी सब्जी भी साफ करके खा लेते हैं क्योंकि जो सब्जी कीड़ा खा रहा है इसका मतलब खाने लायक है तभी तो खा रहा है।
मेरे पास सभी बातों को मानने और सर हिलाने के सिवा कोई जवाब नही था।
सयाने किसानों को पता है कि टेक्नोलॉजी को त्रास बनने के लिए कहाँ और कैसे रोकना है।
उपज को ही अल्टीमेट आउटपुट मानना केवल हमारी नासमझी है।
कुदरत में सीखने सिखाने लायक बहुत कुछ है। कुदरत जो दे रही है उसी में संतोष करना भी एक नज़रिया है।
यह एक बेशकीमती सोच और नज़रिया है हर कोई अफ़्फोर्ड नही कर सकता। जो कर सकता है वो अनमोल है, आदरणीय है।