आँग्ल अफगान युद्ध
केसरी फ़िल्म याद है आपको ? उसमें ब्रिटिश फौज में काम करने वाले भारतीयों और अफगानों के बीच युद्ध दिखाया गया है। आंग्ल-अफगान युद्ध बहुत लंबा चला था। करीब 1700 भारतीय जवान और ब्रिटिश अफसर इसमें हताहत हुए थे। एक बार किसी मोर्चे पर ब्रिटिश इंडियन फौज की लगातार हार हो रही थी। उस मोर्चे पर गढ़वाल राइफल्स को युद्ध करने भेजा गया। गढ़वाल राइफल्स के जवान जाने कैसे रास्ता भटक गए और किसी और ही दिशा में चल पड़े।
भूख से बेहाल फ़ौज
हालत यह हुई कि सारा खाना खत्म, और भूखों मरने की नौबत आ गई। फौजी युद्ध में वीरगति प्राप्त करे तो समझ आता है, पर भूख से मर जाए, कैसी विडंबना। अतड़ियाँ बोल रही थी। आँखें उबली पड़ी थी। बस कुछ खाने को मिल जाए। तभी फौजियों ने देखा कि ऊपर टीले से एक बकरा आ रहा है। फौजी खुश। चलो, एक बकरा तो मिला। इसी को भून-पका कर पेट की आग शांत की जाए।
बकरा दर्शन
बकरा नीचे उन्हीं की तरफ आ रहा था तो फौजी उसके और नजदीक आने का इंतजार करने लगे। तभी वह बकरा एक जगह रुक कर अपने खुरों और थूथन से जमीन खोदने लगा। फौजियों ने देखा कि जमीन से आलू निकल रहे हैं। बकरे की देखादेखी उन्होंने भी जमीन की खुदाई की। आलू ही आलू निकलने लगे। दरअसल वह आलू का ही खेत था।
फौजियों के आने-जाने से जमीन के ऊपर निकले पौधे कुचल कर गायब हो चुके थे। इन आलुओं ने सारे फौजियों की जान बचा ली। जवानों ने उस बकरे का शुक्रिया अदा किया और फैसला किया कि युद्ध खत्म होने पर इस बकरे को लैंसडाउन ले जाएंगे। वे उसे लैंसडाउन ले भी आए। उसे जनरल की रैंक दी गई। फौजी बैरकों के बगल में उस बकरे के लिए एक कमरा रिज़र्व किया गया। तमाम सुख-सुविधाएं मुहैया कराई गई।
जनरल बकरा सिंह की मौज
गढ़वाल राईफल्स की लैन्सडौन छावनी में विजयी सैनिकों का सम्मान हुआ। उनके साथ ही उस बकरे का भी सम्मान किया गया क्योंकि युद्ध में उसने पलाटून के सभी जवानों की जीवन रक्षा की थी अत: उस बकरे को “जनरल” की उपाधि से सम्मानित किया गया। वह बकरा भले ही “जनरल” पद की परिभाषा तथा गरिमा ना समझ पाया हो लेकिन वह परेड ग्राउन्ड में खड़े सैनिकों, आफिसरों के स्नेह को देख रहा था, सभी उस पर फूल बरसा रहे थे। विशाल बलिष्ठ शरीर, लम्बी दाढ़ी वाला वह “जनरल बकरा” फूलमालाओं से ढका एक सिद्ध संत सा दिख रहा था। सैनिकों ने उसका नाम प्यार व सम्मान से “बैजू” रख दिया था।
उस जनरल बकरे को पूरे फौजी सम्मान प्राप्त थे, उसे फौजी बैरिक के एक अलग क्वाटर में अलग बटमैन सुविधायें दी गईं थी। उसकी राशन व्यवस्था भी सरकारी सेवा से सुलभ थी उस पर किसी तरह की कोई पाबन्दी नहीं थी, वह पूरे लैन्सडौन शहर में कहीं भी घूम सकता था। आर० पी० सैनिक उसकी खोज खबर रखते थे। शाम को वो या तो खुद ही आ जाता या उसको ढूंढकर क्वाटर में ले जाया जाता था। बाजार की दुकानों के आगे से वो जब गुजरता था तो उसकी जो भी चीज खाने की इच्छा होती थी खा सकता था चना, गुड़, जलेबी, पकौड़ी, सब्जी कुछ भी।
किसी चीज की कोई रोक टोक नहीं थी, उस खाये हुये सामान का बिल यदि दुकानदार चाहे तो फौज में भेजकर वसूल कर सकता था। अपने बुढ़ापे तक भी वह “जनरल बकरा” बाजार में रोज अपनी लंबी-लंबी दाढ़ी हिलाते हुये कुछ ना कुछ खाता तथा आता जाता रहता था। नये रंगरूट भी उसे देखकर सैल्यूट भी ठीक बूट बजाकर मारते दिखते थे, ऐसा क्यों ना हो वह जनरल कहलाता था।
स्मारक
लम्बी दाढ़ी अजीब सी गन्ध लेकर वह जनरल बकरा रोज दिन से शाम तक लैन्सडौन बाजार की गलियों में घूमता दिखाई देता था। फिर वृद्धवस्था के कारण एक दिन वो मर गय। उसकि मृत्यु पर फौज व बाजार में शोक मनाया गया। जनरल बकरा मर कर भी दुनिया को एक संदेश दे गया।