भारत में जातिवाद अंग्रेजों का बिछाया हुआ एक षड्यंत्र और उसकी काट

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भारत के इतिहास मे कहीं भी देखा जाए जीवन को सही ढंग से उत्पादक वर्ग ने ही जिया है जिसका सबूत है वर्तमान में उनकी जनसंख्या।

भारत में आज भी ब्राह्मण थोड़े से ही हैं और समाज ने इन्हें कमाने का अधिकार इनसे छीन लिया क्योंकि ऋषि जानते थे कि ज्ञान और धन दोनों मिलकर बन्दे को बंदा नही रहने देते राक्षस में बदल देते हैं उदहारण बिल गेट्स।

दूसरे उन्होंने अपने अनुभव से यह जान लिया था कि ज्ञान का घमंड मनुष्य को पागल ना कर दे इसीलिए ज्ञानी पुरुषों के लिए भिक्षा अनिवार्य कर दी गयी और भिक्षा शिक्षक का अधिकार बन गया । एक सोच यह भी थी कि जो छात्र पूरे बीस वर्ष भिक्षा ग्रहण करके शिक्षा अर्जित करेगा तो वो बड़ा होकर कोई भी काम ऐसा नही करेगा जो समाज के विरुद्ध होगा । शिक्षक को यह चिंता नही रहेगी कि उसका गुरुकुल कैसे चलेगा ।

क्षत्रिय जो 25 वर्ष की आयु तक भी बमुश्किल पहुंच पाते थे क्यूंकि देश पर हमले बहुत ज्यादा हुआ करते थे और पीछे से उनकी वीरांगनाएं जौहर कर लिया करती थी। इनको भी ऋषियों ने कमाने का अधिकार नही दिया ये राज्य के लिए की गयी टैक्स वसूली पर ही जीवित थे। आज इनकी जनसंख्या भी बस गिनती की ही है।

वैश्य यह भी गांव में दो चार दस पंद्रह ही हुआ करते थे और उत्पादक से सामान लेना और बंजारों के मार्फ़त उसे देश दुनिया में पहुंचना। पशुपालन करना और कहीं कहीं कृषि कार्य आदि करना भी इनके जिम्मे था। अपनी कमाई पर पर टैक्स देना, देश पर आपातकाल आ जाये तो राजा की मदद करना कोई अकाल पड़ जाए तो फिर अपना खजाना खोल देना और अपने अपने इलाके में कुआं, बावड़ी, धर्मशाला, सड़क, वन आदि का निर्माण करना और उसकी सुरक्षा करना। गुरुकुलों को सहयोग करना आदि इनके कर्तव्य थे यही इनका धर्म भी था।

अब आ गया उत्पादकवर्ग असली प्रजा तो यही थी जिसने भगवान श्रीराम तक को ताना मारा और भगवान् श्रीराम ने उसकी बात का वजन रखते हुए अपना पारिवारिक जीवन तक दांव पर लगवा दिया और यह साबित किया कि राजा अपनी प्रजा का पालक होता है इस सिध्दांत को प्रतिपादित किया जो आगे चलकर मर्यादा बनी और राजा का धर्म कहलाया जिसकी अपेक्षा भारत भूमि पर हरेक राजा से की जाती रही है ।

अब बात करते हैं शूद्र कहे जाने वाले वर्ग की जिसके साथ अंग्रेजों से साजिश की और उसे शूद्र शब्द का गलत अर्थ बताया यह एक उत्पादक वर्ग है जिसका काम तीनों वर्णों की सेवा करना बताया गया है जबकि इसका काम था स्वाभिमान के साथ जीवन का आनंद लेना जिसे आजतक सिर्फ उत्पादक वर्ग ही लिया है जिसका सबूत है उत्पादक वर्ग की जनसंख्या ।

अंग्रेजों ने अपने कारखानों का माल बिकवाना था तो उत्पादक वर्ग का स्वाभिमान तोड़ना और उनको उनकी नज़रों में गिराना अत्यंत आवश्यक था। जिसे उन्होंने शिक्षा के माध्यम से पढ़ा लिखा कर झूठी सच्ची कहानियां सुना डाली और अंगूठे काटने से लेकर इंफ्रास्ट्रक्चर को डिस्मेंटल करने तक सारे काम किये।

अपने मूल स्किल और टेक्नोलॉजी से भटक चुके उत्पादक वर्ग दो टके की सरकारी नौकरी के लालच में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था का आधार बनने की बजाए उपभोक्ता बन कर रह गए। उधर पोलिटीशयन वर्ग ने शूद्र शब्द की डेफिनिशन की इतना संकुचित करके उसे बताना शुरू कर दिया कि यदि किसी उत्पादक समूह या सर्विसेज प्रदाता समूह का नाम भी पुकार दिया तो उसे गुनाह समझा जाएगा।

भोले भाले उत्पादक और सेवा प्रदाता इस षड्यन्तर को समझ नही सके और पोलिटीशयन की बातों ने आ गए और अपने पुश्तैनी काम धंधे छोड़ दिये और अब करके डिग्री मांग रहे है नौकरी। अरे भाई नाई का पेपर उसके द्वारा सीखी गयी कला और उसके द्वारा दी जा रही सेवाओं के परीक्षण के आधार पर लेकर डिग्री देनी थी ना तो होती आजादी की बात।

नाई से उसकी सेवाओं के बारे ने सवाल जवाब करके उसको प्रोफेशनल डिग्री दे देते। यदि वो अपने यहां अपने समाज के बालकों को भी ट्रेन करे तो उसको मास्टर्स डिग्री दे दो।वो अपनी सर्विस में 15साल पूरे कर ले और उसकी कोई शिकायत ना हो और उसका चाल चलन ठीक हो और उसने दो चार सौ लोगों को रोजगार पर लगाया हो तो उसको पीएचडी की डिग्री दे दो।

हो गया समाज का सोशल आर्डर ठीक।आज के जमाने के ऐसे पी.एच.डी. किस काम के जो फोके नौकरी मांगते फिर रहे दिन रात और आने जाने के नाम पर धाँस नही पता और अकड़ ऐल्प्स पर्वत से भी ऊंची और अक्ल के नाम पर थार का मरुस्थल।

भोले भाले ईमानदार स्वाभिमानी लोगों को सीधे ही दलित और पिछड़ा घोषित कर देना उनके साथ एक साइकोलोजिकल अत्याचार और खुराफात है । किसी भी मनोवैज्ञानिक के साथ मनोविज्ञान के सिद्दांतों पर चर्चा करके देखिये कि यदि अच्छे भले बालक को बचपन में यह खा जाए कि तू दलित है या पिछड़ा है तो बीस साल यह शब्द सुन सुन कर वो भरी जवानी में अपनी नज़रों में ही गिर जाएगा और पूरी उम्र कभी भी बेहतर परफॉर्म नही कर पायेगा।

दशमेश पिता सरबंस दानी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ने समाज के शूद्र कहे जाने वाले उत्पादक वर्ग को संगठित करके खालसा पंथ की सृजना की और बकरी कहे जाने वाले लोगों को मुगलों से टक्कर लेने के लिए प्रेरित किया ।

इतिहास गवाह है कि जब मुगलों की फ़ौज के पास खालसा पंथ की सृजना की खबर पहुंची तो उन्होंने एक टिच्चकरा घड़ा ” कट्ठे कीते जट्ट बूट झीमर तरखाना ओह कि जानन तेग नू किथे हथ पाना” इसके बाद इतिहास गवाह है कि श्री गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा पैदा किये गये मनोबल ने क्या क्या कमाल करके दिखाए ।

जातिवाद भारत की जड़ों में अंग्रेजों के द्वारा दिया गया तेल है जो हरपल देश को खत्म कर रहा है । आधुनिक दौर के पोलिटिशियन नेशनल इंटरेस्ट में नही सोच पा रहे हैं और देश को दिशा देने वाली सोच कहीं पर नज़र नही आ रही हैं ।

अंग्रेजों की बनाई डिवाइड एंड रूल की नीति के उलट हमें यूनाइट एंड प्रोग्रेस आल की नीति चलानी पड़ेगी जिसके लिए पहला काम है अपनी परिभाषाएं ठीक करना और अपनी नज़रों में खड़े होना । याद रखो भाई यह देश डबोना नही है हमने इसे बनाना है हर हाल में हर कीमत पर ।

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