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अमरवीर करतार सिंह साराभा की कहानी

अमर वीर करतार सिंह सराभा एक ऐसी चिंगारी का नाम है जिसकी कहानी और जीवन के अनुभवों को देश में ज्यादा बताया ही नहीं गया है। देश के आजादी के लिए पंजाब और बंगाल के लोगों ने जो फाईट मारी उसकी सच्ची कहानियों को भी इतिहासकारों ने स्कूल कालेजों की किताबों से दूर ही रखा है। मुझे पंजाब में रहते हुए बारह साल होने को आये हैं अब जा कर बातें मेरे मन में खुलने लगीं हैं। इधर उधर आने जाने से लोगों से मेल जोल से बातें मालूम चलने लगीं है। अभी थोड़े दिन पहले धनौला पिंड गया था तो वहाँ राजेंद्र सिंह जी के बेटे के कमरे में हमने दोपहर वाली चाय लगाई थी और वहाँ करतार सिंह सराभा जी के बारे में मालूम चला।


अब एक सीरीज शुरू करने जा रहा हूँ जिसे कई दिन चलाएंगे और उस दौर को साथ में जीने का जतन करेंगे।
सराभा पिंड पंजाब के लुधियाना जिले का जगत प्रसिद्ध गाँव है जो लुधियाना शहर से तकरीबन 15 मील दूर है।
आज से लगभग तीन सौ साल पहले रामा और सद्दा दो भाईयों ने यह पिंड बसाया था। इस गाँव में बाशिंदों की तीन पत्तियाँ हैं, रामा पत्ती, सद्दा पत्ती और अराइयाँ पत्ती (सैनी वंश) सन् 1947 में इस गाँव की जनसंख्या लगभग 2 हज़ार थी। गाँव के सरकारी स्कूल का नाम करतार सिंह सराभा मेमोरियल सरकारी स्कूल है। गाँव के NRI’s ने मिलकर गाँव में एक सराभा मेमोरियल आयुर्वेदिक कालेज और हस्पताल की स्थापना की हुई है। लुधियाना शहर और सराभा पिंड में करतार सिंह सराभा की मूर्तियाँ लगीं हैं जो उसे देखने वालों के मन में इतिहास को जगाने का जतन लगातार करती रहती हैं।


करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई 1896 को माता साहेब कौर जी और पिता मंगल सिंह जी के घर पर हुआ था।
कुछ वर्षों के बाद करतार सिंह की छोटी बहन धन कौर का भी जन्म हुआ। परिवार विच बदन सिंह नाम के एक बुजुर्ग थे जिनके सानिध्य में करतार सिंह और धन कौर का लालन पालन हुआ। परिवार में तीन चाचा बड़े सरकारी पदों पर उस वक़्त की ब्रिटिश सरकार में नौकरी पर थे। समय ने चाल चली और करतार को उडीसा प्रांत में जाना पड़ा जहाँ एक चाचा जी नौकरी किया करते थे। वो इलाका उस वक़्त बंगाल क्षेत्र में आता था। यहाँ राजनीतिक जागरूकता पूरे भारत में सबसे ज्यादा थी। करतार ने स्कूल की पढ़ाई के साथ साथ कुछ और साहित्य भी पढ़ा जिसे तत्कालीन क्रांतिकारियों ने लिखा और पब्लिश किया था। करतार ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली तो परिवार के बड़ों ने फैन्सला किया कि आगे की पढ़ाई के लिए करतार को अमरीका भेज देते हैं। उस वक़्त करतार 15 वर्ष के थे और अमरीका जाने की प्रक्रिया पूरी करते करते उड़ीसा के राणेश्वर् कालेज में ग्यारहवीं की परीक्षा पास कर चुके थे। 1 जनवरी 1912 को करतार सिंह जी ने अमरीका की धरती पर कदम रखा।

सराभा पिंड का रहने वाला रुलिया सिंह जो चार साल पहले 1908 में अमरीका आ गया था, करतार सिंह सीधा उसके पास पहुंचा और कुछ दिन वहीं रहा। यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले में दाखिला लेने के लिए करतार सिंह सैन फ्रांसिस्को शहर के पोर्ट पर उतरा तो कस्टम अधिकारी ने करतार सिंह से पूछा कि यहाँ क्यों आये हो। तो करतार सिंह ने बताया कि वो यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले में पढ़ाई करके उच्च शिक्षा ग्रहण करना चाहता है। यहाँ एक महिला के मकान में करतार ने रहने की जगह किराये पर ले ली और फिर थोड़े दिनों के बाद एक दिन शहर में सभी ने अपने घरों को सजाया और जिस घर में करतार बतौर किरायेदार रह रहा था उसे भी सुंदर फूलों से सजाया गया और कुछ महान लोगों के चित्र भी रखे गए। करतार ने मकान मालकिन से पूछा कि यह उत्सव किस लिए हैं जो पूरा शहर मना रहा है और ये लोग कौन हैं जिनके चित्र सभी जगह दिखाई दे रहे हैं। मकान मालकिन ने बताया कि आज अमरीका का स्वतंत्रता दिवस है और आज के दिन हमारे महान नायकों के बलिदान और प्रयासों के फलस्वरूप हमें इंग्लैंड आजादी मिली थी।


अमरीकनों की बातें सुनकर और उनकी आजादी की खुशी देख कर करतार के मन में अपने देश भारत की आजादी की कल्पना की भावना मन में जागृत हुई। उसने सोचा कि एक दिन ऐसा भी होना चाहिए कि जब हम भारतीय भी अपने देश में आजादी का उत्सव मनाएं। उस दौर में ज्यादातर भारतीय जो अमरीका में रहते थे वो लगभग सभी पंजाबी थे और काम धंधे की तलाश में अमरीका के पश्चिमी तट के आसपास ही रहते थे। वो टोलियाँ बना कर रहते थे और उनके इलाको के नाम थे पोर्ट लैंड, सेंट जॉन, एस्टोरिया, एवर्ट आदि। ये सभी लकड़ी चीरने की फैक्ट्रियों और रेलवे की वर्क शॉप पर ही ज्यादा काम करते थे। इन सभी को उस दौर में अमरीकन और कनाडाई लोगों के नस्लवाद से भी कभी कभी दोचार होना पड़ता था। संत तेजा सिंह जी पहले भारतीय थे जिन्होंने अमरीका और कनाडा में नस्लवाद की नालायकी के खिलाफ आवाज उठाई और इनके साथ सरदार ज्वाला सिंह जी ठठियां कंधे से कंधा मिला कर खड़े हो गए। इन्होंने पंजाब से आने वाले छात्रों के लिए स्कॉलरशिप देने के लिए एक फंड बनाया हुआ था जिसमें उस दौर के पंजाबियों ने अपने खून पसीने की कमाई में से योगदान डाला हुआ था।


करतार सिंह जब अमेरिका आते ही 1912 में रुलिया सिंह के साथ अस्टोरिया शहर में रुका हुआ था तो वहाँ पर उन्हें पोर्टलैंड में भारतीय मजदूरों के द्वारा आयोजित की जाने वाली एक कांफ्रेंस के बारे में खबर मिली। इस कांफ्रेंस को बाबा सोहन सिंह भखना जी, हरनाम सिंह तुंडलियात जी, काशी राम जी ने आयोजित किया हुआ था। करतार सिंह इस कांफ्रेंस में पहुंचे तो बाबा ज्वाला सिंह तुंडलियात जी से उनकी मुलाकात हुई और उन्होंने ही करतार को यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले में दाखिला लेने के लिए प्रेरित किया। यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले में उस वक़्त कोई तीस के लगभग भारतीय छात्र थे और सारे के सारे पंजाब और बंगाल से ही थे। यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले में उस वक़्त एक पंजाबी हॉस्टल हुआ करता था करतार इसी हॉस्टल में रहे और कालेज में उनका विषय रसायन विज्ञान था। इसी सब में दिसंबर 1912 आ गया और करतार को अमरीका में आये लगभग एक साल पूरा होने को आया था।


यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले अमरीका में दिसंबर 1912 में लाला हरदयाल जी का आना हुआ और इनके साथ भाई परमानंद जी भी थे और उन्होंने भारतीय छात्रों को एकत्र करके एक भाषण दिया जिसमें इंग्लैड द्वारा कोलिनियल शासन के जरिये भारतीय लोगों और अर्थव्यवस्था के शोषण की बातें बताई गयी। भाई परमानंद जी करतार सिंह के सम्पर्क में बने रहे और उनके साथ लगातार हुए विचार वटान्द्रे ने करतार के मन में देश भक्ति की भावना का संचार कर दिया। करतार के मन में 1857 की क्रांति से लेकर तत्कालीन 1912 के दौर तक भारत में आये बदलावों का तुलनात्मक विमर्श शुरू हो गया।
वो अपनी बातों में जिकर करने लगे कैसे कोलोनियल गोवर्निंग टूल्स जैसे म्युनिसिपालिटी आदि को भारत में लाया जा रहा था और स्थानीय पढ़े लिखे भारतीय लोगों को शासन में हिस्सेदार बना कर किसानों का शोषण किया जा रहा था। भारतीय पारंपरिक उद्योग धंधों को नष्ट करके सारा कच्चा माल इंग्लैंड की फैक्ट्रियों में भेजा जा रहा था। कच्चे माल को सुगमता से ढोने और तैयार माल को देश के कोने कोने में भेजने के लिए रेल का नेटवर्क बिछाया जा रहा था।


देश में किसानों ने कई जगह बगावतें भी की थी और बीसवीं सदी की शुरुआत में पंजाब के किसानों का अंग्रेजों ने इतना शोषण कर लिया था कि उनमें से कई किसान अमरीका कनाडा और यूरोप के कई देशों में मजदूरी नौकरी आदि करने के लिए जाने लगे थे। पंजाब के मध्यम वर्ग के परिवारों के बच्चे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड की तरफ आने लगे थे।
भारत के पंजाब से किसानों का पहला ग्रुप काम की तलाश में सन 1895 में अमरीका और कनाडा की धरती पर पहुंचा था। 1897 में इंग्लैंड में भारत पर ब्रिटिश संसद के कंट्रोल की डायमंड जुबली का उत्सव मनाया गया था तो वहाँ सिख सैनिक भी भारत से उत्सव में भाग लेने के लिए भेजे गए थे उनमें से कई लोग वापिस भारत नहीं आये और इंग्लैंड में ही सेटल हो गए थे। इसी तरह पंजाब के बहुत सारे सिख सैनिक ब्रिटिश कंट्रोल के अन्य देशों जैसे मलाया, फिलीपीन, हांगकांग, शनघाई, फीजी, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि से भी धीरे धीरे अमरीका और कनाडा में शिफ्ट हो गए थे।
जहाँ 1905 में कनाडा में भारतीय लोगों की संख्या 45 थी वहीं तीन साल के बाद 1908 में कनाडा में 6000 के आसपास भारतीय लोग सेटल होने के लिए आ चुके थे। इनमे से 80% पंजाब की सिख किसान परिवारों के ही लोग थे।

कनाडा की सरकार ने हवाओं का रुख भांप लिया और अपने देश में आने के नियम सन 1909 में सख़्त कर दिये जिसकी वजह से पंजाब के लोगों ने अमरीका की ओर जाना शुरू कर दिया। डॉ राम मनोहर लोहिया जी ने अपनी पुस्तक विदेशों में भारतीय में लिखा है कि सन् 1913 के आसपास अमरीका में लगभग पंद्रह हज़ार भारतीय सेटल होने के लिए पहुँच चुके थे। जिनमें से 90% पंजाब के सिख किसान परिवारों के बाशिंदे ही थे। अमरीका कनाडा की धरती पर पहुंचे लोगों में से जो पढ़े लिखे लोग थे उन्होंने अमरीका और कनाडा में स्थानीय अखबार और रिसाले निकालने शुरू कर दिये। तारकनाथ दास ने Free Hindustan नाम से रिसाला निकाला जिसमें भारत की आजादी की बात उठाई जाती थी। इसी तरह गुरुदत्त कुमार ने कनाडा में United Indian League नाम से रिसाला शुरू कर दिया। स्वदेश सेवक भी उस दौर में एक पॉपुलर मैगज़ीन बन गयी थी।


धीऱे धीऱे ये विचार इंग्लैंड फ्रांस जर्मनी जापान आदि देशों में भी अखबारों और रिसालों के माध्यम से पहुँच गए और वहाँ से भी भारत की आजादी के विचार और मांगें उठने लगी। इंग्लैंड के अंदर से सबसे बुलंद आवाज श्याम जी कृष्ण वर्मा जी ने Indian Sociologist नाम के रिसाले से बुलंद की। सरदार सिंह राणा जी और मैडम भीका जी कामा जी श्याम जी कृष्ण वर्मा जी के साथ काम करने लगे। मैडम कामा जी ने सबसे पहले भारतीय झंडे को स्टुट्गार्ड में सन 1907 में हुई सोशलिस्ट कांफ्रेंस के दौरान लहराया था। जर्मनी में वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय जिन्हे चट्टो के नाम से भी जाना जाता था के साथ चंपक रमन पिल्लै सक्रिय थे। इनके साथ स्वामी विवेकानंद जी के छोटे भाई डॉ भूपेंद्र नाथ दत्त जी भी जुड़ गए थे।
साल 1906 में इंग्लैंड में विनायक सावरकर भी पहुंचे और अभिनव भारत की स्थापना कर दी और Free India Society का भी गठन कर दिया।


साल 1909 में Curzon Wylee के सीने में पंजाब से आये मदन लाल ढींगरा ने गोलियां ठोक दी और उन्हें डेढ़ महीने के अंदर ही अंग्रेजो ने फांसी दे दी और भारत से बाहर फांसी की सजा पाने वाले पहले भारतीय मदन लाल ढींगरा जी हुए।
इनके 31 साल के बाद 1940 में उधम सिंह जी को इंग्लैंड में फांसी मिली थी जिन्होंने जलियाँ वाला बाग नरसंहार की आज्ञा देने वाले माइकल औडायर को गोलियों से ठोक दिया था जब वो शेखी बघारने के लिए लेक्चर स्टैंड पर खड़ा ही हुआ था।
इसी दौरान भारत की आजादी की आवाज बुलंद करने के लिए सूफी अम्बा प्रसाद को ईरान में और भाई मेवा सिंह जी को कनाडा में फांसी की सजायें मिली।


लाला हरदयाल विदेशी भूमि पर भारत की आजादी का झण्डा बुलंद करने वालों में एक बड़ा नाम हैं। हरदायल दिल्ली में पैदा हुए और यहीं उन्होंने उच्च शिक्षा भी ग्रहण की और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक स्कॉलरशिप मिलने पर सन 1905 में लंदन पहुंचे और फिर एक दिन श्याम जी कृष्ण वर्मा जी से सम्पर्क हो गया और जीवन की दिशा बदल गयी। 1907 आते आते मन में इतना बवंडर मच गया कि स्कोलरशिप और पढ़ाई दोनों छोड़ दी और भारत लौट आये और उस दौर की पत्रिकाओं में लेख भेजने लगे। सन 1908 के मध्य में दोबारा इंग्लैंड पहुंचे और फिर पेरिस आदि स्थानों पर नेटवर्किंग करते रहे। लेख लिखने का सिलसिला जारी रहा जिससे इनकी पहचान भी आजादी के दीवाने क्रांतिकारी के तौर पर मुकम्मल हो गयी। 1911 में ये घूमते घमाते अमरीका पहुंच गए। कुछ दिन हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में बिताने के बाद ये यूनिवर्सिटी ऑफ बर्कले का रुख किया। इस दौरान ये अपने लेख कलकत्ता मॉड्रेन रिव्यू नामक जर्नल में भेज रहे थे। Stanford University ने इनके लेखों के आधार पर इनके लिए एक पोजिशन create जिसका नाम Eminance of Bharat Drashan रखा गया और इस पोस्ट पर लाला हर दयाल जी ने 1913 तक काम किया।


भाई परमानंद जी को जब लाला हरदयाल जी बाबत मालूम चला तो उन्होंने उन्हें सैन फ्रांसिस्को आने का सडडा दिया।
यहाँ पर पंजाब से सिख किसानों की एक बड़ी संख्या नौकरी मजदूरी की तलाश में सेटल होने को आई हुई थी। दुनियादारी को अच्छे से देख समझ लेने के बाद उनके मन में अपने देश को आजाद कराने की भावनाएं भी सुलग रही थी। उसी दौर में अमरीका के कैलिफोर्निया शहर में एक डॉ पांडुरंग सदाशिव खानखोजे साहब होते थे जिन्होंने पंडित काशीराम जी के आर्थिक सहयोग से इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की हुई थी। लाला हरदयाल जी की मुलाकात डॉ पांडुरंग से हुई और एक जबरदस्त वैचारिक विस्फोट का सामान और माहौल तैयार हो गया। उधर 1 जनवरी 1912 को करतार सिंह सराभा परमात्मा द्वारा की गयी इन सब तैयारियों से अंजान पढ़ाई करके अपना और अपने परिवार का जीवन सँवारने के मकसद से अमरीका की धरती पर उतरा।

सन 1912 तक पंजाब के विभिन्न इलाकों से नौकरी मजदूरी की तलाश में सिख किसान परिवारों से लोग अमरीका के पश्चिमी तट के नज़दीक छोटे छोटे शहरों में काफी लोग आ चुके थे जो बीस बीस तीस तीस की टोलियों में मिलकर रहते थे। बहुत सारे पंजाबी छात्र भी अमरीकी विश्वविधालयों में पढने के लिए आ रहे थे।
बाबा ज्वाला सिंह जी बाबा सोहन सिंह भखना जी वहां मौजिज लोगों में शुमार थे जिनकी वहां के समाज में बड़ी इज्जत और पकड़ थी। गुलाम देश की टीस हुन्हें वहां अमरीका कनाडा के आजाद देश में महसूस होने लग रही थी। समाज में सब तरह की बातें चला करती थी वतन की याद भी आती थी और फिर बात देश की आजादी के उपराले बाबत ही मुका करती थी।


एक दिन लाला हरदयाल जी को बाबा ज्वाला सिंह जी बाबा सोहन सिंह भखना जी ने विचार वटान्द्रे (डिस्कशन) हेतु बुला लिया टॉपिक वही था कि देश नू आजाद किवें करवाया जावे। इस मीटिंग में भारतीय छात्रों का एक दल भी सेवा भाव से पहुंचा हुआ था जिसमें करतार सिंह साराभा भी एक था जिसे बमुश्किल एक साल अमरीका की धरती पर होने को आया था और जो यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्कले में रसायन विज्ञान का छात्र था। मीटिंग में लाला हरदयाल जी ने जो बातें रखी और अपनी ओजस्वी वाणी से जो भाषण दिया उससे वहां मौजूद पंजाबियों का लगातार खौलते रहने वाला खून डबल ट्रिपल दर्जे तक उबल गया। इस मीटिंग के बाद संत तेजा सिंह जी तारक नाथ दास जी और जी डी कुमार जी की ड्यूटी लगाईं गयी कि यूनिवर्सिटी ऑफ़ सियाटल में पढने वाले भारतीय छात्रों को ब्रिटिशर्स द्वारा भारतीयों पर किये जा रहे जुल्मों और देश को लूटे जाने की कहानियां सुनाएँ।


स्वदेश सेवक, परदेसी खालसा, संसार , फ्री हिन्दुस्तान नामक रिसालों (पत्रिकाओं) को भारतीय छात्रों , मजदूरों और नौकरी पेशा लोगों तक निरंतर पहुंचाने की व्यवस्था भी बनाई गयी ताकि वैचारिक एकरूपता और एक जुटता लायी जा सके और जरूरत पड़ने पर और समय साने पर कुछ बड़ा सोचा और किया जा सके। उसी दौर में एक प्रोफेसर सुरिंदर मोहन बोस जी भी हुआ करते थे जिन्होंने तारकनाथ दास जी के साथ मिलकर East India Association के नाम से एक संगठन खड़ा किया था जिसमें छात्र और अध्यापक ही शामिल थे और आपस में मिल कर देश को आजाद कराने की बातें किया करते थे। कुछ महीने यह सब चलता रहा और फिर एक दिन सबने मिलकर Hindustan Association of Pacific Coast को गठन करने का निर्णय हुआ और बाबा सोहन सिंह भखना जी इसके प्रेसिडेंट निर्वाचित हुए। पंडित काशी राम जी को इसका खजांची निर्वाचित किया गया और लाला हरदयाल जी को इसका सेक्रेटरी बनाया गया। मार्च 1913 में लाला हरदयाल जी ने एक विचार रखा कि सन 1857 जिसे ब्रिटिश लोग ग़दर कहते हैं उसी तर्ज पर एक और ग़दर खड़ा किया जाये।


सबके दिलों में तूफ़ान तो पहले से ही घुमड़ा हुआ था पंजाबियों और बंगालियों ने भारत माता को आजाद कराने के लिए इस शब्द को अंगीकार कर लिया और ग़दर नाम से एक नया रिसाला (अखबार) निकालने का प्रस्ताव पास हो गया।
यह ग़दर अखबार पंजाबी हिंदी उर्दू और गुजराती भाषा में अमरीका की धरती से छापा जाने लगा। गदर अखबार के बंगाली संस्करण का नाम युगांतर आश्रम रखा गया जो आगे चलकर युगांतर के नाम से प्रसिद्द हुआ। ग़दर से जुडी सभी गतिविधियों का हेड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को शहर में रखा गया था। वैचारिक क्रान्ति ने रंग दिखाए और इसमें आगे ज्वाला सिंह थट्टियाँ जी, वैशाखा सिंह दाधेदार जी, संतोख सिंह धारदेव जी, पंडित जगतराम जी, भी आकर सक्रीय रूप से जुड़ गए। युवा करतार सिंह साराभा और रुलिया सिंह दोनों जो कि साराभा पिंड के ही वसनीक थे को ग़दर से जुड़े सभी कामों में बेहद आत्मिक संतोष और आनंद की अनुभूति हुआ करती थे सो वे बैठकों में भी अपनी सेवा देने लग गए।


31 मार्च को बिरडेबिली , 7 अप्रैल को लिंटन मिल, और 21 अप्रैल को अस्टोरिया में तीन बड़ी मीटिंग्स का आयोजन किया जिसमें करतार और रुलिया दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इन सभी मीटिंग्स में जो बातें हुई उससे ग़दर पार्टी की स्थापना करने का मंसूबा तैयार हो गया। सरदार गुरशरण सिंह सेंसरा जी जालंधर वाले जिन्होंने 1969 में ग़दर पार्टी का इतिहास नामक पुस्तक लिखी है। वो अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि ग़दर पार्टी के प्रेसिडेंट के तौर पर बाबा सोहन सिंह भखना जी को चुना गया और लाला हरदयाल जी को सेक्रेट्री चुना गया . ठाकुर दास घूरी को जॉइंट सेक्रेट्री बनाया गया और पंडित कांशी राम जी ग़दर पार्टी के खजांची चुने गए। एस्टोरिया वाली मीटिंग जो 21 अप्रैल को हुई थी उसी में ग़दर पार्टी की स्थापना का मंसूबा बना था और इसे ही आगे चलकर गदर पाटी के स्थापना दिवस के तौर पर मनाया जाता है लेकिन ग़दर अखबार में छपी एक खबर में पता चलता है कि एक नवम्बर 1913 को ग़दर पार्टी का सलाना दिवस मनाया गया था।


जालंधर पंजाब भारत में एक देशभक्त यादगार हाल बना हुआ है जहाँ हर वर्ष 21 अप्रैल को गदर पार्टी का स्थापना दिवस मनाया जाता है। ग़दर पार्टी की स्थापना के बाद करतार सिंह साराभा जो यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्कले में रसायन विज्ञान का छात्र था ने सक्रिय रूप से काम करना शुरू कर दिया और 1 नवम्बर 1913 को छपे ग़दर के संस्करण में भारत को सशस्त्र संघर्ष से आजाद कराने की बात छपी थी को अपने दिल में उतार लिया और दिनरात उसी के चिन्तन मनन में डूब गया।

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