लेखक मनबीर रेढू कीट साक्षरता मिशन इग्राह जींद हरियाणा
हिन्दुस्तान का किसान देशी कपास, साइंस की भाषा में कहें तो गोसिपियम अर्बोरियम कपास की खेती करता था। यह वर्षा आधारित खेती होती थी। खुरपी और कसौले (कसीहा) से निराई-गुड़ाई करके, केशिका शक्ति (कैपिलरी) का उपयोग करते हुए, अपने शरीर की ताकत से ठीक-ठाक उपज पैदा कर लेता था। उससे चरखे के सहारे कताई करके मोटा रेजा, खेस, चादर तैयार करके अपने गदेले रजाइयाँ बनाकर जीवन निर्वाह करता था। रुई अलग करने के बाद निकले बिनौले अगले बीज के लिए रखता और बाकी अपने पशुधन को खिलाकर उनकी सेहत का संवर्धन करता। अच्छी फसल होने पर व्यापारी को बेचकर दो पैसे भी इकट्ठे कर लेता। अनुकूल मौसम में 12 से 14 क्विंटल तक कपास मिल जाती थी। किसान खुश था।
अन्य क्षेत्रों के किसानों से जुड़ाव के कारण दूसरी देशी कपास, जिसे साइंस की भाषा में गोसिपियम हर्बेसियम कहा जाता है, इसके बीजों का हस्तांतरण हुआ। इसकी खेती भी असम से लेकर हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र तक के किसानों ने अपनाई। तरीका वही रहा—वर्षा आधारित प्राकृतिक खेती। बैलों और किसान परिवार की मेहनत के सहारे, अपनी प्रैक्टिस ऑफ पैकेज के साथ अच्छी उपज मिलती थी। लंबे रेशे के कारण धागे के काउंट में इजाफा हुआ, जिससे अच्छा खादी कपड़ा गांव-गांव जुलाहे तैयार करते और देश की सेवा में हाजिर होते। किसान इतने खुश थे कि दीवाली पर गाय के गोबर के उपले बनाकर, उस पर कपास के फोए सजाकर पूजा करते। कपास की रुई विदेशों तक जाने लगी, लेकिन यहीं से इस खुशी को नजर लग गई।
अंग्रेजों को मशीनों में धागा तैयार करने के लिए लंबे रेशे वाली कपास चाहिए थी। इसके लिए उन्होंने ऑस्ट्रेलियन कॉटन (जिसे अमेरिकन कपास या नरमा के नाम से जाना जाता है), साइंस की भाषा में गोसिपियम हिर्सुटम, को हिंदुस्तानी जमीन पर उगाने की कोशिश की। शुरू में उन्हें कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि यह वर्षा आधारित और प्राकृतिक खेती में हमारे पूर्वजों को संतुष्ट नहीं कर पाई। लेकिन जैसे ही पानी का प्रबंधन मजबूत हुआ, हमारे वैज्ञानिकों के दिमाग का सॉफ्टवेयर उनके अनुकूल प्रोग्रामिंग होने लगा। उन्होंने समझा दिया कि यही है “सफेद सोना”।
शुरू में 777 जैसी वैरायटी नरमा आई, साथ में सिफारिशें आईं—रोणी, जमीन तैयार करने के लिए दोहरी जुताई, लाइनों में बिजाई, डीएपी, यूरिया, दो सिचाइयाँ और कीटनाशकों का प्रयोग। यहीं से किसानों का भ्रमित होना शुरू हुआ। चार कली का चमकदार बड़ा गलहा (फोआ), लंबे समय तक फोए की पकड़, चौड़ा पत्ता—ये चमकदार “फिरंगी पजामें” वाले किसानों को भाने लगी। शुरू में किसानों को जहर डालने के लिए कहा गया कि कीड़े बदबू से भागते हैं। जहर का छिड़काव करने से खेत में बदबू होगी और कीड़े खेत छोड़ देंगे। मुझे अच्छे से याद है, पजामे वाले किसान, प्रोग्राम किए गए वैज्ञानिकों की बातों में आकर बाल्टी में मैलाथियॉन घोलकर डाभ की गुच्छी से छिड़काव करते थे, जबकि धोती-साफे (खिड़के) वाले किसान उन्हें रोकते थे कि जहर के छींटे पत्तों पर गिरेंगे तो कुछ असर पड़ेगा। लेकिन अनपढ़ समझे जाने वाले धोती वाले किसानों की बात को पजामे वाले किसानों ने पैंट वालों की बातों में आकर एक न सुनी। यहीं से किसान की मौत के प्रोग्राम की शुरुआत हो गई।
यदि यहीं पर किसी धोती वाले किसान की बात मानकर इस प्रैक्टिस के साथ पुराने देशी बीजों को तुलनात्मक उद्देश्य के लिए बोया होता, तो शायद इस कहर में फर्क पड़ता। लेकिन खेल शुरू हो गया। नए संशोधित बीज आते गए, नई सिफारिशें लागू होती गईं। कीड़ों को अपने ढंग से परिभाषित करना शुरू किया। कीड़ों को मित्र और शत्रु दो भागों में बांटकर, मौत के सामान का व्यापार अपने ढंग से पनपने लगा। बाल्टी में घोल बनाकर डाभ की गुच्छी से शुरूआत हुई, फिर पीतल की सार्वजनिक टंकी, जो जहर के साथ शहर की दुकान से गांव में आती थी, उससे सभी ग्राहक काम चलाते। फिर प्लास्टिक की अपनी टंकी से होते हुए 10,000 लीटर के टैंकों तक, और अब ड्रोन तक पहुंच गए। नाम लेकर कीड़ों को टारगेट करके मारना शुरू किया, लिस्ट बदलती गई। जहरों को ताकतवर बनाते गए, रेट बढ़ाते गए। डाभ की गुच्छी से ड्रोन तक पहुंच गए, लेकिन दस कीड़े न सिख पाए, न सीख पाए। क्योंकि कीड़े का तो व्यापार चलाना था, समझना नहीं था।
जैसे ही किसान इस सिस्टम से विचलित होता दिखाई देता, या तो नई वैरायटी प्रचार में आ जाती या फिर कोई नया जहर प्रचार में आ जाता। किसान फिर भ्रमित हो जाता। जहरों से तंग आकर जैसे ही किसान ने देशी कपास को तवज्जो देनी शुरू की, हाइब्रिड ले आए। हाइब्रिड के साथ नई प्रैक्टिस ऑफ पैकेज भी आ गई। अब 65 किलो शुद्ध नाइट्रोजन, 65 किलो शुद्ध फॉस्फोरस के साथ पोटाश और सल्फर की भी सिफारिश की गई। सिचाई की मात्रा भी बढ़ाई गई। महंगे बीज, महंगी बिजाई होने से किसान ने कीटनाशकों को भी ज्यादा महत्व देना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे कीड़े को टारगेट करके मारना शुरू किया, कीड़ा बेकाबू होता गया। 1983 से अमेरिकन सुंडी को टारगेट करके मारना शुरू किया, 2000 तक आते-आते 35-35 स्प्रे तक पहुंच गए। किसानों को कंपनियों के नाम के साथ साल्ट याद हो गए, लेकिन अमेरिकन सुंडी के मॉथ को नहीं पहचान पाए। वहीं, वैज्ञानिकों ने प्रचार पर जोर देकर किसानों को अमेरिकन सुंडी के लिए असहाय महसूस करवा दिया। और आसान सा रास्ता दिखाया—बीटी कॉटन।
बीटी कॉटन के लिए प्रचार किया गया कि कॉटन के जीन में बेसिलस थुरिंजिएंसिस बैक्टीरिया गन मैथड से डाला गया है। इसे खाते ही अमेरिकन सुंडी, गुलाबी सुंडी और चितकबरी सुंडी मर जाएगी। किसानों ने राहत की सांस ली और बीटी कॉटन को हाथों-हाथ लिया। यहां दो खुलासे हुए। पहला, अभी तक किसान से चार किलो बिनौले की बिजाई कराई जाती थी। 440 ग्राम की पैकिंग बीटी आई, पौधों की संख्या पूरी हो गई। किसान हक्का-बक्का रह गया कि बिनौले का साइज वही, पौधे का साइज वही, तो अभी तक हम चार किलो बिनौले क्यों बो रहे थे? कंपनियों को मजबूरीवश बताना पड़ा, क्योंकि 4000 रुपये किलो बीज बेचना है, तो 4 किलो 16000 का होगा, जो उस समय की कुल उपज के बराबर था। दूसरा, मारना बंद करने से अमेरिकन सुंडी शांत हो गई।
बीटी के साथ कोई प्रैक्टिस ऑफ पैकेज नहीं आया, किसी ने जिम्मेदारी नहीं ली, क्योंकि किसान खर्च करने का आदि हो चुका था। उधर, पेस्टीसाइड लॉबी को खून-मुंह लग चुका था। उसका शांत रहना मुश्किल था। उसने प्लानिंग करके नए कीड़े—मिलीबग—का डर किसानों के दिमाग के सॉफ्टवेयर में प्रोग्रामिंग करना शुरू किया। पंजाब में कामयाबी भी मिली, लेकिन हरियाणा के जींद में डॉ. सुरेंद्र दलाल की सूझबूझ के कारण मामला जल्दी ठंडा पड़ गया। ठंडा पड़ते ही 2007 में पेस्टीसाइड लॉबी ने नई चोट मारी। सफेद मक्खी के प्रचार पर जुट गई। किसानों ने सफेद मक्खी की पहचान और स्वभाव को जानने के बजाय रेडियो, टेलीविजन और अखबारों के माध्यम से बताए गए जहरों को मारना शुरू किया। जैसे-जैसे मारते गए, अमेरिकन सुंडी की तरह सफेद मक्खी भी बढ़ती गई। 2014 तक खड़ी फसल में ट्रैक्टर चलवाने में सफल हुई।
अभी तक किसान जहरों के संपर्क में आने से चढ़ने से या बीमार होकर तो मर रहे थे, अब कर्ज की मार के कारण पीकर भी मरने लग गए। इसके बाद भी खून-मुंह लगे ने नई तैयारियों से मुंह नहीं मोड़ा। उन्होंने पिछली गलती, जब बीटी-2 को बिना प्रचार और प्रोपगंडा के उतार दिया था और किसानों ने नकार दिया था, उससे सीख लेते हुए नई बीटी उतारने से पहले गुलाबी सुंडी का प्रचार किया। स्वीकार किया कि यह बीटी गुलाबी सुंडी के प्रति प्रतिरोधक नहीं रही। किसानों ने गुलाबी सुंडी के लिए स्प्रे करना शुरू किया। अन्य कीड़ों की तरह गुलाबी सुंडी ने भी संख्या बढ़ाना शुरू कर दिया।
साथ ही हवा में नमी बढ़ने से फंगस की बढ़ोतरी से किसानों की फसल चौपट हो गई। लगातार चार साल तक चार तरह की मार कपास के किसान पर पड़ रही है। एक, गुलाबी सुंडी। दो, फंगस। तीन, चुगाई की लेबर—लगातार गुलाबी सुंडी और फंगस से खराब हुई कपास में लेबर चुगाई में नहीं पड़ रहा, इसलिए लेबर ने भी धान की तरफ मुंह मोड़ लिया। चार, भाव—सरकार की बेरुखी और खराब क्वालिटी के कारण कपास को भाव नहीं मिल रहा।
नतीजा यह रहा कि लगातार घटते-घटते कपास कई जिलों में तो जीरो होती हुई जींद तक आ चुकी है। अब सरकार ने कपास के लिए प्रोग्राम शुरू किया है। जिनके सहारे सरकार कपास उत्पादन बढ़वाना चाहती है, वो चर्चा कर रहे हैं कि हम कैसे कमा सकते हैं। निचोड़ यह है कि वो भी दम तोड़ गई, जिसने किसानों का दम तोड़ने का कार्यक्रम शुरू किया था।
इतना धैर्य से पढ़ने के लिए धन्यवाद!