कुमारी वंदना
सुकरात के बारे में प्रचलित है कि उनकी पत्नी बहुत कर्कशा थी। एक बार जब उसने भोजन करने के लिए सुकरात को आवाज दी, सुकरात अपने शिष्यों से चर्चा में मगन थे। जब बारबार आवाज देने पर भी वे नहीं गए तो सुकरात की पत्नी ने आकर उन पर पानी उड़ेल दिया (पानी की जगह कहीं कहीं चाय और कहीं कहीं कीचड़ का भी उल्लेख मिलता है)। सब दंग रह गए तो सुकरात ने कहा – मेरी पत्नी कितनी करुणामयी है, गर्मी से राहत देने मुझपर पानी उड़ेल गयी।
वैसे तो इस कथा में सुकरात के सहिष्णु पक्ष को उभारा जाता है और यह भी कहा जाता है कि वे दार्शनिक ही इसलिए बने कि उन्होंने पत्नी के कर्कश व्यवहार को भी शांति से सहना शुरू कर दिया। वे उसे अपना परीक्षक मानते थे। माना जाता है कि उन्होंने विवाह के बारे में द्वन्द्व में पड़े अपने शिष्य को कहा कि विवाह कर लो। अच्छी पत्नी मिली तो जीवन स्वर्ग बन जाएगा और कर्कशा मिली तो तुम दार्शनिक बन जाओगे। दोनों तरफ लाभ ही है।
वैसे तो मैं सुकरात की पत्नी और उनके तीन बेटों की माँ जेंथिप की तरफ से सोचकर देखूं तो ये कहूंगी कि वह अपने प्रति पति की उपेक्षा से आहत थी। उसे उनकी बदसूरती से घृणा होती तो शायद तीन बेटे नहीं होते। प्रेम न करती तो उनको जब विष पीने का राज्यादेश मिला तो नहीं रोती। खाना खाने या चाय पीने बुलाती ही नहीं अपने मन से। वह देखती थी कि दूसरों के सामने इतनी बातें करने वाला पति उसकी बात का जवाब नहीं देता। घर में चुपचाप किताबों में घुसा पति शिष्यों और दोस्तों के सामने मुखर और वाचाल रहता है। शायद यह बात उसे हीनग्रंथि का शिकार बना रही थी कि मैं अशिक्षित हूँ, इसलिए मेरा तिरस्कार करते हैं। ऐसे में चिड़चिड़ापन आ जाना बहुत स्वाभाविक है। लेकिन मैं इस पक्ष को छोड़कर ये कहूंगी कि हमारे यहां तो भामती और भारती के उदाहरण रहे हैं।
एक विद्वान लगातार तीस वर्ष से एक ग्रन्थ लिखने में व्यस्त थे। कब दिन हुआ, कब रात, इससे अनजान वे जब नींद आती, सो जाते। जब जगते तो अपने कार्य में लगे रहते। कौन उन्हें खाना दे जाता है, कौन रात में उनके कक्ष में दीप जलाता है, कौन उनकी जरूरतों का बिना बताए ख्याल रखता है, इस पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया।
अथक परिश्रम के बाद एक दिन उनका लेखन कार्य पूर्ण हुआ। उन्होंने सिर उठाकर देखा – एक स्त्री उनके कक्ष में दीप में तेल डालकर मद्धम पड़ती रोशनी को तेज करने का प्रयास कर रही थी। वह उनकी माँ नहीं थी। उन्होंने पूछा – आप कौन हैं देवी। स्त्री बोली – मुझसे छत्तीस वर्ष पहले आपका विवाह हुआ था। तीस वर्ष पहले आपकी माताजी ने मेरा गौना करवा लिया। आप लेखन में व्यस्त थे आर्य, इसलिए आपको याद नहीं।
पति देखता रह गया उस देवीतुल्य स्त्री को, जिसने अपना बचपन, यौवन मात्र पति की सेवा में बिता दिया और अपने सुख के लिए पति के कार्य में विघ्न नहीं डाला, पूरा जीवन बिता लिया बिना शिकायत। पति वाचस्पति मिश्र ने उस पत्नी के त्याग को सम्मान देने के लिए अपनी तीस वर्ष की अथक मेहनत से लिखी पुस्तक को नाम दिया भामती टीका। भामती पत्नी का नाम था।
उस पत्नी ने अपनी उपेक्षा नहीं महसूस किया था, क्योंकि उसके पति किसी से बात नहीं करते थे। वह सबसे एक ही जैसे कटे छंटे, अपने उद्देश्य में लगे स्पष्ट दिखाई पड़ते थे। पत्नी भी विदूषी थी। हीनताबोध नहीं था उसमें, अपनी क्षमताओं को जानती थी।
अब बात करते हैं भारती की, जिसने आदि शंकराचार्य को कहा कि जब तक मैं आपसे पराजित नहीं हुई हूँ, मेरे पति पराजित कैसे माने जा सकते हैं। मेरे बिना वे तो अपने आप में आधे ही हैं, उनकी अर्धांगिनी होने के नाते जब मैं भी पराजित हो जाऊँ, तब उनकी पराजय मानी जाएगी। विवाहित स्त्री पुरुष का अस्तित्व एक हो जाता है, वे अर्धनारीश्वर हो जाते हैं। और उसका यह तर्क जब शंकराचार्य ने स्वीकार किया और उससे प्रश्न करने को कहा तो अद्भुत बौद्धिक कौशल का उपयोग करते हुए भारती ने उस शास्त्र से प्रश्न पूछा, जिसके बारे में उसे पूरी संभावना लगी कि एक ब्रह्मचारी को ज्ञान नहीं होगा। वह सही थी और सामने वाले को परास्त करने के लिए जिस प्रत्युत्पन्नमति की आवश्यकता थी, वह उसमें थी। उस समय शंकराचार्य उससे नहीं जीत सके। वे चले गए और फिर कुछ महीने बाद कामशास्त्र का अध्ययन करके लौटे और तब भारती को परास्त कर पाए। इसके बाद मंडनमिश्र आदि शंकराचार्य के शिष्य बनकर सन्यासी हो गए।
हम भामती और भारती जैसी विदुषियों की संस्कृति भूलकर कब तक जेंथिप का उदाहरण तलाशते रहेंगे। धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गौरव को विस्मृत करके आत्महीनता के मनोविज्ञान का विश्लेषण करते रहेंगे। हम जिस बात की चर्चा करेंगे, वैसे ही बनेंगे तो क्यों न फिर अपने जीवनमूल्यों के उन्नयन हेतु उन्नत पुरातन गौरवशाली प्रसंगों का स्मरण करें! क्यों न एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण आंदोलन शुरू करें।