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नास की जड़ फ्री रैडिकल्स और उनका तोड़

फ्री रैडिकल्स और ऐंटीऑक्सीडैंट्स

ऑक्सीजन एक ऐसी चीज है जिसके बिना जीवन की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। विडम्बना है कि यही ऑक्सीजन कुछ विशेष परिस्थितियों में हमारे शरीर को बहुत अधिक क्षति भी पँहुचा सकता है, इतनी कि कुछ वैज्ञानिक इसे कर्करोग या वृद्धावस्था लाने के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार ठहराते हैं। फ्री रैडिकल्स या रिऐक्टिव ऑक्सीजन स्पीशीज (आरओएस) की जानकारी डाक्टरी हलके के बाहर शायद कम को हो किन्तु उन के काट “ऐंटीऑक्सीडैंट्स” के नाम सबों ने सुन रखे होंगे. शायद यह भी सुना हो कि ये ऐंटीऑक्सीडेंट्स हमारे शरीर से फ्री रैडिकल्स को हटाते हैं, जिन्हे यदि नहीं हटाया जाए तो वे हमारी कोशिकाओं को बहुत क्षति पँहुचा सकते हैं।

फ्री रैडिकल्स


फ्री रैडिकल्स क्या होते हैं? जैव-रासायनिक परिभाषा है, फ्री रैडिकल्स ऐसे अणु या अणु सरीखे कण हैं जिन के परमाणुओं में इलेक्ट्रॉन जोड़े में नहीं रहते। इस दुर्बोध परिभाषा के लिए क्षमा मांगते हुए इसे सपष्ट करने का प्रयास:

तत्वों की सबसे छोटी इकाई को परमाणु कहते हैं। सभी तत्वों के परमाणु प्रोटोन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन के बने होते हैं। परमाणु के केंद्र को नाभिक कहते हैं जहाँ न्यूट्रॉन और प्रोटॉन रहते हैं, इलेक्ट्रॉन नाभिक के चक्कर लगाते हैं। नाभिक के चारो ओर लगातार घूमते इलेक्ट्रॉन के पथ बहुत जटिल होते हैं। प्रायः किसी परमाणु के सभी इलेक्ट्रॉन एक ही पथ पर नहीं घूम सकते। अनेक पथ होते हैं और किसी पथ पर एक सीमित संख्या तक ही इलेक्ट्रॉन रह सकते हैं। जब किसी पथ पर इलेक्ट्रॉन की संख्या उस पथ के लिए अनुमत इलेक्ट्रॉन संख्या से कम होती है तब वह परमाणु रासायनिक क्रियाओं द्वारा किसी दूसरे परमाणु से मिलकर अपने कुछ इलेक्ट्रॉन देकर या उसके कुछ इलेक्ट्रान लेकर अपने पथ पर उतने इलेक्ट्रॉन कर लेता है जितने उसके पथों पर अनुमत हैं. इससे उसे एक स्थायित्व मिलता है।

तत्वों की रासायनिक प्रतिक्रियाएं मुख्यतः उनके परमाणुओं में स्थित इलेक्ट्रॉन के चलते होती हैं। उदाहरण के लिए ऑक्सीजन के परमाणु को देखते हैं। उसमे आठ इलेक्ट्रॉन होते हैं – दो पथों पर। पहले पथ पर दो ही एलेक्ट्रॉन हो सकते हैं। पहले पथ के भरने के बाद शेष छः इलेक्ट्रॉन उसके दूसरे पथ पर रहते हैं। दूसरे पथ पर आठ इलेक्ट्रॉन रह सकते हैं। ऑक्सीजन के परमाणु में इस पर बस छः ही हैं।

ऑक्सीजन का परमाणु दो इलेक्ट्रान ‘खोजता’ है जिससे इस दूसरे पथ पर आठ इलेक्ट्रॉन हो जाएं। कुछ तत्वों के परमाणु अपने इलेक्ट्रॉन दे देते हैं जैसे कैल्शियम का परमाणु दो इलेक्ट्रॉन ऑक्सीजन के परमाणु को दे देता है और हमें कैल्शियम ऑक्साइड यानी चूना मिल जाता है। कुछ तत्वों के परमाणु अपने एक इलेक्ट्रॉन को दूसरे के साथ ‘साझा’ करते हैं अर्थात वे अपना इलेक्ट्रॉन दूसरे तत्व के परमाणु के साथ भी रहने देते हैं और बदले में उस परमाणु के इलेक्ट्रॉन को अपने साथ भी रखते हैं।

हाइड्रोजन के दो परमाणु इसी तरह ऑक्सीजन के एक परमाणु से मिलते हैं। इस मिलन के चलते ऑक्सीजन के परमाणु के बाहरी पथ पर आठ (6 अपने+2 प्रत्येक हाइड्रोजन परमाणु से एक-एक) इलेक्ट्रॉन होजाते हैं और हाइड्रोजन के प्रत्येक परमाणु के बाहरी पथ पर दो-दो एलेक्ट्रॉन (एक अपना और एक साझे का) हो जाते हैं और इस तरह हमें पानी या H2O का एक अणु मिल जाता है।

हमारे शरीर का करीब 60% पानी है! अब यदि किसी जैव-रासायनिक क्रिया से पानी के एक अणु से हाइड्रोजन का एक परमाणु हट जाए तो जो बचता है उसे ‘हाइड्रॉक्सिल’ कहते हैं. इसमें ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के एक एक परमाणु रहते हैं। ऑक्सीजन के परमाणु के बाहरी पथ पर अब बस सात इलेक्ट्रॉन बच गए.उसका स्थायित्व घट गया और यह हाइड्रॉक्सिल अत्यधिक क्रियाशील हो जाता है।इसके निकट जो भी अणु रहते हैं उन्हें यह क्षतिग्रस्त कर सकता है।

यह हाइड्रॉक्सिल एक फ्री रैडिकल है।

हाइड्रोक्सिल दो परमाणुओं का बना होता है – हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के एक एक अर्थात हाइड्रॉक्सिल में ऑक्सीजन के दूसरे पथ पर बस सात इलेक्ट्रॉन रहते हैं- पथ की सीमा आठ से कम और एक इलेक्ट्रॉन अकेला (जुड़वा नहीं) होता है।

हमारे शरीर में फ्री रैडिकल्स


हमारे शरीर में प्रतिरक्षा प्रक्रियाओं (इम्यून ऐक्शन्स) में हाइड्रॉक्सिल रैडिकल बनता है। यदि प्रतिरक्षा कोशिकाएं किसी कारण से अधिक सक्रिय हो जाएं तो यह बहुत बनने लगता है। हाइड्रॉक्सिल या दूसरे फ्री रैडिकल्स अन्य कारणों से भी बनते हैं; जैसे विकिरण (रेडिएशन), तम्बाकू का धुंआ, वायु प्रदूषण, औद्योगिक रसायन इत्यादि।

फ्री रैडिकल्स सभी तरह के वृहतअणुओं (मैक्रोमॉलिक्यूल) को – कार्बोहाइड्रेट्स, नुक्लेइक ऐसिड, वसा, और प्रोटीन – को क्षतिग्रस्त करते हैं। हाइड्रॉक्सिल फ्री रैडिकल का जीवन काल बस नौ से दस सेकण्ड का होता है किन्तु अपनी अत्यधिक क्रियाशीलता के चलते उतनी ही देर में यह बहुत उत्पात मचा सकता है और किसी प्राणी के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। गनीमत है कि अपने क्रमिक विकास (इवोल्यूशन) के क्रम में सभी प्राणी इसके साथ जीना सीख चुके हैं। तबाही तब मचती है जब प्रतिरक्षा तंत्र की अतिशय सक्रियता के चलते या किसी और कारण से यह अधिक मात्रा में बनने लगे।

ध्यान रहे कि हमारी कोशिकाओं में फ्री रैडिकल्स लगातार बनते रहते हैं। इनसे हमारी कोशिकाओं में प्रतिकूल परिवर्तन होते रहने की संभावना है। समय के साथ ऐसे अहितकर परिवर्तन हमारे पूरे शरीर में इकट्ठे होते जाते हैं। बढ़ती उम्र के साथ इनका इकट्ठा होना एक ‘सामान्य’ बात है जो प्रायः सबों के साथ होता है। किन्तु फ्री रैडिकल्स के चलते इस सामान्य ढर्रे से हो रहे अहितकर परिवर्तनों को हमारी आनुवांशिक प्रवृत्तियाँ, हमारे आचरण (जैसे धूम्र पान करना) और हमारा पर्यावरण न्यूनाधिक करता है।

ऑक्सीडेटिव दबाव (ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस)


जैसा ऊपर लिखा गया है, सभी प्राणियों ने फ्री रैडिकल्स के विरुद्ध कुछ सुरक्षात्मक प्रक्रियाएं भी विकसित कर ली हैं – ऐंटीऑक्सीडेंट्स बनाना जो फ्री रैडिकल्स को फ़ौरन निष्क्रिय कर दें। यदि किसी जीव में फ्री रैडिकल्स बनने की प्रक्रिया उनके हटाए जाने पर भारी पड़ने लगे तो हम कहते हैं कि वह जीव ऑक्सीडेटिव दबाव (ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस) झेल रहा है। ऑक्सीडेटिव दबाव का प्रभाव कई तरह के वृहतअणुओं पर देखा जाता है – वसा, प्रोटीन, नुक्लेइक ऐसिड।

ध्यान रहे कि अल्पकालिक ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस बहुत सामान्य बात है – यह चोट (ट्रॉमा), संक्रमण, विष-प्रभाव, बहुत अधिक व्यायाम आदि अनेक कारणों से हो सकता है। इन कारणों से क्षति खाए ऊतकों (टिशूज़) में ऐसे एन्ज़ाइम बनते हैं जो फ्री रैडिकल्स पैदा करते हैं. किन्तु ये अल्पकालिक रहते हैं।

जब ऑक्सीडेटिव दबाव स्थायी हो जाता है, जब फ्री रैडिकल्स (या आरओएस) लगातार शरीर में वृहतअणुओं को क्षतिग्रस्त करते रहते हैं तो उनसे होते अहितकर परिवर्तनों का सम्बन्ध कर्क रोग, और विकिरण / केमोथेरपी के पार्श्व प्रभाव (साइड इफ़ेक्ट) से देखे गए हैं। अब माना जाता है फ्री रैडिकल्स जटिल मधुमेह, उम्र के साथ आती दृष्टिहीनता, हृदवाहिनी (कार्डिओवस्कुलर) रोग और स्नायु-अपकर्षक (न्यूरोडिजेनेरेटिव) रोग जैसे पार्किंसन की बीमारी आदि से भी सम्बद्ध हैं।

ऐंटीऑक्सीडेंट्स


अब फ्री रैडिकल्स से बचाव के पक्ष को देखते हैं यानी ऐंटीऑक्सीडेंट्स को. सहज जिज्ञासा है ये क्या काम करते हैं जो फ्री रैडिकल्स निष्क्रिय हो जाते हैं? ऊपर हमने देखा है फ्री रैडिकल्स पागलों की तरह सभी अणुओं को क्षतिग्रस्त करते चलते हैं क्योंकि उनके परमाणुओं में इलेक्ट्रॉन जोड़े में नहीं रहते। ऐंटीऑक्सीडेंट्स इलेक्ट्रॉन दाता होते हैं। ये इलेक्ट्रॉन देकर फ्री रैडिकल्स को शांत कर देते हैं।

ऐंटीऑक्सीडेंट्स की वैज्ञानिक समझ अभी मुश्किल से तीस साल पुरानी है। नब्बे की दशक में वैज्ञानिकों ने फ़्री रैडिकल्स से होते नुक्सान को समझा, और पाया कि जो लोग फल या सब्जियां कम खाते हैं यानी जो कम ऐंटीऑक्सीडेंट्स लेते हैं उनमे फ्री रैडिकल्स से होती बीमारियों से कम प्रतिरक्षा रहती है। फिर परीक्षण शुरू हुए कि फलों या सब्जियों के कौन अवयव वाकई ऐंटीऑक्सीडेंट्स हैं। इन परीक्षणों के बाद देखा गया कि बीटा कैरोटीन, विटामिन ई, विटामिन सी, सेलेनियम आदि ऐंटीऑक्सीडेंट्स का काम करते हैं।

अभी परीक्षण चल ही रहे थे कि फार्मा कंपनियों ने ऐंटीऑक्सीडेंट्स के गुणों को बढ़ा चढ़ा कर बताते हुए ‘सुपर फूड्स’ बेचना शुरू कर दिया. परीक्षणों से पता चला कि सभी ऐंटीऑक्सीडेंट्स सभी स्थितियों में कारगर नहीं होते। विटामिन ई से हृदय के रोगों में या कर्क रोग में कोई लाभ नहीं होता।

परीक्षणों से यह भी पता चला कि इन पूरकों से वह लाभ नहीं मिलता जो ऐंटीऑक्सीडेंट्स को प्राकृतिक रूप में लेने से मिलता है। जैसे संतरे का 200 ग्राम रस पीने से हमें 115 मिलीग्राम विटामिन सी मिलता है लेकिन बतौर ऐंटीऑक्सीडेंट्स यह विटामिन सी की 500 मिलीग्राम की गोली से अधिक असरदार होता है। इसका कारण वैज्ञानिकों के अनुसार, शायद संतरे के रस में मिलते दूसरे रसायन हैं, मुख्यतः पॉलीफेनॉल जिनकी उपस्थिति में विटामिन सी अपना काम अधिक प्रभावी रूप से कर पाता है। इसी तरह बादाम या सरसो के साग में आठ किस्म के विटामिन ई मिलते हैं, लेकिन उसकी गोली में बस एक किस्म का।

परीक्षणों के ऐसे निराशाजनक नतीजों का फार्मा कंपनियों पर कोई असर नहीं पड़ा वे अभी भी तरह तरह के ऐंटीऑक्सीडेंट्स पूरक (सप्प्लिमेंट्स) बेच रहे हैं.

यह सच है कि फलों, सब्जिओं और असंशोधित अनाजों में मिलने वाले ऐंटीऑक्सीडेंट्स, खनिज, रुक्षांश (फाइबर) आदि कई चिरकालिक बीमारियों में लाभ पँहुचाते हैं वहीँ इसकी संभावना कम है कि ऐंटीऔक्सीडैंट्स पूरकों (सप्प्लिमेंट्स) को भारी खुराक में लेने से उतना लाभ होगा.

मुख्य ऐंटीऔक्सीडैंट्स और उनके स्रोत (भारतीय भोजन शैली में)


विटामिन सी: खरबूज, गोभी, मौसम्मी, नीबू, संतरा, पपीता, शकरकंद, टमाटर, शिमला मिर्च (हर रंग का) और सरसो, शलगम,और चुकंदर की पत्तियाँ
विटामिन ई: बादाम, मूंगफली, लाल शिमला मिर्च, पालक (उबाले हुए) और सरसो, शलगम,और चुकंदर की पत्तियाँ
बीटा कैरोटीन आदि: चुकंदर, खरबूज, गाजर, शिमला मिर्च, आम, शलगम की पत्तियाँ, संतरा, कदीमा, पालक, शकरकंद, टमाटर, और तरबूज.
सेलेनियम: मछली, जौ, लाल चावल
ज़िंक: मुर्गी, झींगा मछली, तिल, क़दीमे के बीज, काबुली चना, दाल, काजू
पॉलीफेनॉल्स: सेब, रेड वाइन, चाय, अंगूर, मूंगफली

उपसंहार


फ्री रैडिकल्स की अधिकता से चिरकालिक बीमारियों – कर्क रोग, ह्रदय रोग, मातिभ्रम, दृष्टिहीनता – के होने की संभावना रहती है। इसका यह अर्थ नहीं कि ऐंटीऑक्सीडेंट्स लेने से वे ठीक होजाएंगी, विशेषकर तब जब आप उनके पूरक (सप्पलीमेंट) लें। सप्लीमेंट्स के रोग पर असर पड़ने के प्रमाण बहुत कम हैं। लेकिन इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि फल, सब्जियां और असंशोधित अनाज – जिनमे प्राकृतिक ऐंटीऑक्सीडेंट्स और दूसरे सहायक अणु (जैसे पॉलीफेनॉल्स) होते हैं – खाने से उम्र के साथ आती कई व्याधियों से प्रतिरक्षा मिलती है।

(ऐंटीऑक्सीडैंट्स के स्रोत और उनपर हुए परीक्षण की जानकारी मुख्यतः हारवर्ड के वेबसाईट से, फ्री-रैडिकल्स की जानकारी मुख्यतः एनआईएच के वेबसाईट से ली गयी है और मुझे यह लेख फेसबुक से प्राप्त हा है )

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